RE: Desi Porn Kahani विधवा का पति
दो जीपों में पूरी पुलिस फोर्स के साथ वे सर्च वारण्ट लेकर न्यादर अली के बंगले पर पहुंचे। पुलिस बल बंगले में दाखिल हो गया।
उन्हें देखते ही सेठ न्यादर अली अधीरतापूर्वक पूछ बैठे— “ क्....क्या मेरा बेटा मिल गया है ?"
दीवान ने बहुत ही कड़ी दृष्टि से न्यादर अली को घूरा , बोला— "हमें तो यह पता लगा है कि सिकन्दर यहां आया है।"
“य.....यहां—कहां है , कहां है सिकन्दर ?" न्यादर अली पागल-सा होकर चीख पड़ा।
"ज्यादा नाटक करने की कोशिश मत करो, मिस्टर न्यादर अली , हम जानते हैं कि उसे तुमने इसी बंगले में कहीं छुपा रखा है—उसे हमारे हवाले कर दो।"
"क...कैसी बात कर रहे हो, इंस्पेक्टर? हम भला उसे छुपाएंगे क्यों ?"
उसे आतंकित कर देने की मंशा से घूरते हुए दीवान ने पुन: कहा— “इस बात को अच्छी तरह समझ लो मिस्टर न्यादर अली कि मुजरिम को पनाह देने वाला भी मुजरिम होता है। भले ही पनाह देने वाला मुजरिम का पिता हो।"
"म.....मेरा सिकन्दर भला मुजरिम कैसे हो सकता है ?”
और फिर चटर्जी ने आगे बढ़कर संक्षेप में न्यादर अली को सारा किस्सा समझा दिया। सुनने के बाद न्यादर अली की आंखें हैरत से फटी-की-फटी रह गईं। वह पागलों की तरह चीख पड़ा— “न...नहीं …यह झूठ है …मेरा बेटा किसी की हत्या नहीं कर सकता—मेरा सिकन्दर तो एक चींटी को भी नहीं मार सकता—तुम झूठ बोल रहे हो—या तो वह कोई और होगा या पुलिस मेरे बेटे को किसी षड़्यंत्र का शिकार बना रही है।"
न्यादर अली चीखता ही रहा , जबकि फोर्स ने उसके बंगले की तलाशी लेनी शुरू कर दी।
परिणाम तो पाठक जानते ही हैं।
पूरा एक घण्टा व्यर्थ बरबाद किया गया। उसके बाद वह पुलिस बल न्यादर अली को रोता-पीटता छोड़कर वापस लौट गया—तीनों इंस्पेक्टर एक ही जीप में थे।
काफी देर तक जीप में खामोशी छाई रही।
"मेरे ख्याल से अब वह देहली से बाहर निकलने की चेष्टा करेगा।" अचानक दीवान ने शंका व्यक्त की।
धीमे से मुस्कराया चटर्जी , बोला—"भागकर जाएगा कहां , कल हम अखबार में उसकी फोटो छपवा देंगे। ऐसा होने पर उसे कोई भी पहचान सकता है …और फिर हर आदमी उसके लिए एक पुलिस कांस्टेबल से कम खतरनाक नहीं होगा।"
¶¶
ऊपर वाले कमरे में , पलंग पर अकेली पड़ी रश्मि सूने-सूने नेत्रों से कमरे की छत को निहार रही थी।
अभी , कुछ देर पहले तक नीचे से विशेष और उस अजनबी के खेलने , हंसने और बोलने की आवाजें आ रही थीं।
कुछ ही देर से तो खामोशी छाई है।
रात गहरा गई थी—चारों तरफ सन्नाटा छा गया।
रश्मि सोचने लगी कि क्या विशेष सो गया है ?
क्या उस शैतान को नींद आ गई है , जो कभी उसके बिना नहीं सोता है ? यही सोचते-सोचते उसे काफी देर हो गई। अचानक ही जाने उसके दिमाग में क्या विचार आया कि वह उठकर खड़ी हो गई—बड़े ध्यान से , बड़े प्यार से वह दीवार पर लगे सर्वेश के फोटो को देखने लगी। वह देखती रही—देखती रही और देखते-ही-देखते उसे जाने क्या याद आने लगा।
उसका चेहरा कठोर होता चला गया , आंखें पथरा-सी गईं—जाने किस भावना के वशीभूत जबड़े भिंच गए उसके।
कोमल मुट्ठियां कसती चली गईं।
नीली आंखों से आग लपलपाती-सी महसूस हुई। दांत भींचे किसी जुनून-से में फंसी वह कह उठी— “म...मैं बदला लेकर रहूंगी प्राणनाथ—आपके चरणों की कसम , अपने हत्यारे का खून पी जाऊंगी मैं—एक बार , बस एक बार रंगा-बिल्ला मेरे सामने आ जाएं।"
जज्बातों के झंझावात में फंसी , उत्तेजना के कारण अभी वह कांप ही रही थी कि कमरे के बन्द दरवाजे पर दस्तक हुई।
बुरी तरह चौंककर वह उछल पड़ी।
एक ही क्षण में उसके जिस्म के असंख्य मसामों ने बर्फ-सा ठंडा पसीना उगल दिया—दिल बहुत जोर-जोर से धड़कने लगा , आतंकित-सी वह कमरे के बन्द दरवाजे को देखने लगी। शायद दहशत के कारण ही जुबान तालू में कहीं जा चिपकी थी।
दस्तक पुन: उभरी।
रश्मि ऊपर से नीचे तक कांप गई। उसने अपनी सारी हिम्मत जुटाकर पलंग के सिरहाने से एक रिवॉल्वर निकाल लिया। डर के कारण भले ही उसका हाथ कांप रहा था , परन्तु रिवॉल्वर को बन्द दरवाजे की तरफ तानकर बोली—“क....कौन है ?"
"म...मैं हूं रश्मिजी।"
“त...तुम ?" कांपते लहजे को संतुलित करने की रश्मि ने भरपूर चेष्टा की— “तुम यहां क्यों आए हो ?"
"वीशू सो गया है , इसे ले लीजिए।"
रश्मि का कठोर स्वर—“अगर सो गया है तो नीचे ही सोने दीजिए।"
"यह नींद में मम्मी-मम्मी बड़बड़ा रहा था , इसीलिए मैं विवश हो गया।"
"मैंने कहा था कि तुम ऊपर नहीं आओगे।"
"मुझे याद है रश्मिजी , मैं वीशू को दरवाजे के इस तरफ लिटाए जा रहा हूं—जब मैं चला जाऊंगा तो इसे उठाकर ले जाइएगा।" युवक के इस वाक्य के जवाब में रश्मि चुप रही—कुछ देर बाद उसे किसी के द्वारा सीढ़ियां उतरने की आवाज सुनाई दी।
एक बोझ-सा उसके दिलो-दिमाग से उतर गया।
रिवॉल्वर को पलंग पर डालकर दरवाजे की तरफ अभी उसने पहला कदम बढ़ाया ही था कि मस्तिष्क से एक विचार टकराया—'कहीं यह उस बदमाश की कोई चाल तो नहीं है ?
'सम्भव है कि सीढ़ियां उतरने की आवाज सिर्फ पैदा की गई हों , असल में वह कमरे के बाहर ही अंधेरे में कहीं छिपा खडा हो , ऐसा हो सकता है।’
इस एकमात्र विचार ने उसे पुन: आतंकित कर दिया।
'उसकी नीयत में खोट हो सकता है—पराए मर्द का क्या भरोसा—बहुरूपिया कहीं छुपा पड़ा हो—मैं दरवाजा खोलूं और वह झपट पड़े , तब मैं उस दरिन्दे से अपनी रक्षा कैसे कर सकूंगी ?'
'बस— एकाएक ही कानों में उसके पति की आवाज गूंज गई—'रश्मि , क्या तुझमें इतना ही हौंसला है? अरे , अगर तू इतनी डरपोक बनी रही तो मेरे हत्यारों से बदला कैसे ले सकेगी—रिवॉल्वर तेरे पास है , उठा उसे और निकल बाहर—अगर वह तेरी इज्जत पर हमला करे तो गोली से उड़ा दे उसे। '
उसी आवाज की प्रेरणावश उसने रिवॉल्वर उठा लिया , चेहरे पर सख्ती के वही भाव उभर आए , जो कभी महारानी लक्ष्मीबाई के चेहरे पर रहे होंगे—अब वह बिना डरे आगे बढ़ी।
बेहिचक दरवाजा खोल दिया उसने।
रिवॉल्वर मजबूती के साथ पकड़े हुए थी रश्मि। रात चांदनी थी—सारी छत पर चांदनी पिघली हुई चांदी के समान बिखरी पड़ी थी। दरवाजे के पास जमीन पर सो रहे विशेष के अलावा वहां कोई नहीं था।
चारों तरफ खामोशी और छिटकी हुई चांदनी उसे अच्छी लगी।
सोते हुए विशेष को उठाकर उसने कमरे के अंदर, पलंग पर लिटाया , फिर दरवाजा बन्द किया —रिवॉल्वर सिरहाने रखा और इत्मीनान की एक सांस लेती हुई लेट गई।
वह पुन: छत को निहारने लगी।
मस्तिष्क में पुन: विचार रेंगने लगे—सोच रही थी कि मैंने व्यर्थ ही उस बेचारे की नीयत पर शक किया , यह सचमुच चला गया था और फिर विशेष तो सचमुच ही नींद में 'मम्मी-मम्मी' बड़बड़ाता रहता है—सुनकर उसने इसे यहां पहुंचाना जरूरी समझा होगा।
'किसी पर व्यर्थ ही शक करना भी तो पाप है—वह ऐसा नहीं है—म....मैं जब स्वयं विशेष को डांटकर कमरे से बाहर भेज रही थी , तब खुद उसी ने इसे यहां रोका था—यदि वह गिरे हुए चरित्र का होता तो ऐसा हरगिज नहीं करता—नहीं , युवक ऐसा नहीं है।'
'वह बेचारा तो खुद ही ऐसी उलझन में फंसा हुआ है , जो बड़ी अजीब है।'
युवक की उलझन का अहसास करती-करती वह जाने कब सो गई ?
जब आंख खुली तो दरवाजे को कोई जोर-जोर से पीट रहा था।
रश्मि हड़बड़ाकर उठी , रोशनदान के माध्यम से कमरे में धूप की ताजा रोशनीयों आ रही थी। बौखलाकर उसने पूछा— "क.....कौन है ?"
"अरी दरवाजा खोल, रश्मि...देख , वह चला गया है—मेरा बेटा चला गया , बस एक ही रात के लिए यहां आया था।"
रश्मि खुद नहीं जानती थी कि युवक के चले जाने की इस सूचना से उसे धक्का-सा क्यों लगा , वह लपकी-सी दरवाजे पर पहुंची।
विशेष भी जाग चुका था।
अपनी दोनों मुट्ठियों से आंखें भींचते हुए उसने पहला वाक्य यही कहा— "पापा कहां हैं ?"
दरवाजा खुलते ही पागल-सी रोती-पीटती बूढ़ी मां अंदर दाखिल हुई , बोली— “ देख ले—वह चला गया , तू उसे सर्वेश कहने के लिए तैयार नहीं थी न?”
"क...कहां चले गए ?"
"म....मैं क्या जानूं.....मैं उसके कमरे में गई तो वह वहां नहीं था—पलंग पर यह खत पड़ा था , शायद कुछ लिखकर छोड़ गया है—इसे जल्दी से पढ़।"
विशेष कुछ भी नहीं समझ पा रहा था , इसीलिए पलंग पर ही बैठा मासूम-सी नजरों से उनकी तरफ देखता रहा। रश्मि ने जल्दी से
मां के हाथ से कागज लिया।
लिखा था—
प्रिय रश्मिजी ,
अपने घर में रहने के लिए दो दिन की मौहलत देने के लिए बहुत धन्यवाद—दिल से चाहता तो था कि वे दो दिन पूरे करूं , अगर सच्चाई पूछें तो वह ये है कि यहां से जाने की इच्छा बिल्कुल नहीं थी—अतीत की तलाश में भटकते हुए यहां आकर मुझे कुछ ऐसा सकून मिला कि फिर से अतीत की तलाश में भटकने की मंशा ही खत्म हो गई थी—हां, लेकिन यकीनन मैं सर्वेश नहीं हूं, फिर भी जाने क्यों , इस चारदीवारी में मुझे ऐसा महसूस हुआ था कि मेरा अतीत मिल गया है।
मैँ वीशू के साथ खेला , हंसा—वह सब शायद मुझे तब तक याद रहेगा , जब तक कि प्रकृति एक बार पुन: मेरी याददाश्त न छीन ले— , बड़ी ही प्यारी लगने वाली शैतानियां करता है वीशू और यदि सच पूछें तो मैं वक्त से पहले उसी शैतान से डरकर जा रहा हूं—मुझे माफ करना रश्मि जी , वीशू और मांजी को जो कुछ समझाने का मैंने आप से वादा किया था , उसे पूरा करके नहीं जा रहा हूं—पूरा कर भी नहीं सकता—‘बेटा-बेटा ' करती मांजी और 'पापा-पापा ' करते वीशू को वास्तविकता बताना दुनिया का शायद सब से कठिन काम है।
वीशू को आपके कमरे के बाहर लिटाकर आने के बाद यहां आकर यह पत्र लिख रहा हूं—दुर्भाग्य से उस वक्त मैंने आपकी आवाज सुन ली थी , जब शायद आप अपने पति के फोटो से बातें कर रही थीं—यह सवाल तीर की तरह दिल में चुभता चला गया कि आखिर किस दरिन्दे में इतना कलेजा था , जिसने वीशू जैसे मासूम बच्चे के पिता की हत्या कर दी—खैर , जानता हूं कि इस सवाल का जवाब मुझे कभी नहीं मिलेगा , क्योंकि यह आपका अपना व्यक्तिगत मामला है और इस बारे में कुछ भी जानने का मुझे कोई हक नहीं है—दिल पर पत्थर रखकर इसीलिए जा रहा हूं क्योंकि जानता हूं कि अगर मैं पूरे दो दिन तक उस मासूम फरिश्ते के साथ खेलता रहा तो फिर जा ही नहीं सकूंगा और जाना तो मुझे पड़ेगा ही। मैं सर्वेश नहीं हूं—फिर भी मेरी तरफ से एक बार वीशू को चूम जरूर लेना , मांजी से चरण स्पर्श करना।
आपका कोई नहीं—एक अजनबी।
पूरा पत्र पढ़ने के बाद उसी स्थान पर खड़ी-खड़ी पथरा-सी गई रश्मि। मांजी अभी तक चीख-चीखकर पूछ रही थी कि पत्र में क्या लिखा है। विशेष ने केवल एक ही रट लगा रखी थी— "मम्मी , पापा कहां हैं—पापा कहां चले गए हैं, मम्मी ?"
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