RE: Desi Porn Kahani विधवा का पति
सिकन्दर के समूचे जिस्म पर चुस्त लिबास था , चेहरे पर उसी लिबास के साथ का नकाब—प्रगति मैदान के बाहर वाली लाल बारहदरी में बने बहुत-से थम्बों में से एक के पीछे खड़ा था वह—दूर-दूर तक हर तरफ खामोशी छाई हुई थी।
चांदनी छिटकी पड़ी थी—आकाश पर चांदी के थाल-सा चन्द्रमा मुस्करा रहा था। थम्ब के पीछे छुपे सिकन्दर ने मुख्य द्वार की तरफ देखा , कहीं कोई न था।
प्रगति मैदान के चौकीदार को वह पहले ही बेहोश करके एक अंधेरे कोने में डाल चुका था। सिकन्दर ने रिस्टवॉच में समय देखा।
दस बजने में सिर्फ पांच मिनट बाकी थे।
सिकन्दर के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं—जाने कौन उसके कान में फुसफुसाया—'पांच मिनट , सिर्फ पांच मिनट बाकी रह गए हैं सिकन्दर—हाथ में रिवॉल्वर लिए रश्मि आएगी—तुझे उसके सामने जाना होगा—वह तुझे मार डालेगी। "
सिकन्दर पसीने-पसीने हो गया।
लोहे वाला मुख्य द्वार धीरे से खुला।
नजर मुख्य द्वार की तरफ उठी तो दिल 'धक्क् ' की आवाज के साथ एक बार बड़ी जोर से धड़का और फिर रबड़ की गेंद के समान उछलकर मानो उसके कण्ठ में आ अटका—वह रश्मि ही थी।
चांदनी के बीच , सफेद लिबास में इसी तरफ बढ़ती हुई वह सिकन्दर को किसी पवित्र रूह जैसी लगी—हां , रूह ही तो थी वह—ऐसी रूह , जो उसके प्राण लेने आई है—खामोश। रश्मि चौकन्नी निगाहों से अपने चारों तरफ देखती धीरे-धीरे उसकी तरफ बढ़ी चली जा रही थी। विचारों का बवंडर पुनः सिकन्दर के कानों के आसपास चीखने-चिल्लाने लगा , आत्मा चीख-चीखकर कहने लगी—तेरे मरने का समय आ गया है सिकन्दर , यहां इस थम्ब के पीछे छुपा क्यों खड़ा है—बाहर निकल यहां से—उसके सामने पहुंच—अगर बहादुर है तो सीना तानकर खड़ा हो जा उसके सामने—क्योंकि तेरे गुनाहों की यही सजा है।
फिर किसी अजनबी शक्ति ने उसे थम्ब के पीछे से धकेल दिया—शराब के नशे में चूर-सा वह लड़खड़ाता हुआ चांदनी में पहुंच गया। उसे अचानक ही यूं अपने सामने प्रकट होता देखकर एक पल के लिए तो रश्मि बौखला-सी गई , परन्तु अगले ही पल अपने आंचल से रिवॉल्वर निकालकर तान दिया।
कंपकपाकर सिकन्दर किसी मूर्ति के समान खड़ा रह गया।
रश्मि उसके काले लिबास पर चमकदार गोटे से जड़े 'कोबरा ' को देखते ही सख्त हो गई , मुंह से गुर्राहट निकली—“तू ही 'शाही कोबरा ' है ?"
"हां।" सिकन्दर की आवाज उसके कण्ठ में फंस गई।
रश्मि के संगमरमरी चेहरे पर सचमुच के संगमरमर की-सी कठोरता उभर आई , आग का भभका-सा निकला उसके मुंह से—"तुम ही ने सर्वेश को मारा था ?"
"हां।"
"फिर इतनी आसानी से खुद को मेरे हवाले क्यों कर रहे हो ?"
रश्मि के इस सवाल का जवाब 'हां ' या 'नहीं ' में नहीं दिया जा सकता था , और जिस सिकन्दर के मुंह से आतंक की अधिकता के कारण 'हां ' भी पूरी तरह ठीक न निकल रहा हो , वह भला एकदम से इस सवाल का जवाब कैसे दे देता ?
उसने कोशिश की , परन्तु आवाज कण्ठ में ही गड़बड़ाकर रह गई—तेज हवा से घिरे सूखे पत्ते-सा उसका जिस्म कांप रहा था , जिस्म ही नहीं , जेहन और आत्मा तक—आंखों के सामने अंधेरा छाया जा रहा था , खड़े रहना मुश्किल हो गया—अपनी तरफ तने रिवॉल्वर को देखकर भला ऐसी हालत किसकी न हो जाएगी ?
सिकन्दर अभी इस अन्तर्द्वन्द से गुजर ही रहा था कि रश्मि की गुर्राहट गूंजी—"जवाब क्यों नहीं देता , इतनी आसानी से खुद को मेरे हवाले क्यों कर रहा है ?"
और उस क्षण मरने से डर गया सिकन्दर।
बिजली की-सी गति से घूमा और किसी धनुष के द्वारा छोड़े गए तीर की तरह एक तरफ को भागा।
उसे भागते देख रश्मि की आंखें सुलग उठीं।
‘धांय-धांय। ' उसने दो बार ट्रेगर दबा दिया।
. मगर निशाना साध्य नहीं था अत : गोलियां बेतहाशा भागते हुए सिकन्दर के दाएं-बाएं से निकल गईं और उसी पल भागता हुआ सिकन्दर बुरी तरह लड़खड़ाया—गिरते-गिरते बचा वह।
रश्मि की दृष्टि उसके जूते की घिसी हुई एड़ियां पर पड़ी। फायर करने तक का होश न रहा—रिवॉल्वर ताने किसी सफेद स्टैचू के समान खड़ी रह गई थी वह। कानों में अपने ही कहे गए शब्द गूंज रहे थे—'तुम्हारे दोनों जूतों की एड़ियां घिस गई हैं। शायद इसीलिए आंगन पार करते समय कई बार लड़खड़ा गए , मेरी सलाह है कि एड़ियां ठीक करा लो , वरना कहीं मुंह के बल गिर पड़ोगे। '
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कैडलॉक को स्वयं ड्राइव करता हुआ सिकन्दर अब प्रतिपल प्रगति मैदान से दूर होता चला जा रहा था। उस वक्त उसके चेहरे पर कोई नकाब नहीं था।
कैडलॉंक उसने लारेंस रोड की तरफ जाने वाली सड़क पर डाल दी—अपने बंगले के पिछले हिस्से में जाकर उसने कैडलॉक रोकी—दूर-दूर तक खामोशी छाई हुई थी। उसका अपना बंगला सन्नाटे की चादर में लिपटा खड़ा था।
सिकन्दर ने कैडलॉक में पड़े सूटकेस से शीशा काटने वाला एक हीरा तथा पेन्सिल टॉर्च निकालकर गाड़ी 'लॉक ' कर दी—एक ही जम्प में चारदीवारी के पार 'धप्प'—की हल्की-सी आवाज के साथ बंगले के पिछले लॉन में गिरा।
दो मिनट बाद ही वह ग्राउण्ड फ्लोर पर स्थित एक कमरे की खिड़की का शीशा काट रहा था—शीशा काटने के बाद कटे हुए भाग में हाथ डाला और चिटकनी खोल ली।
अगले पल वह कमरे में था।
पैंसिल टॉर्च के क्षीण प्रकाश में ही यह दीवार के साथ जुड़ी नम्बरों वाली एक मजबूत सेफ के नज़दीक पहुंच गया।
सेफ न्यादर अली की थी—हालांकि सिकन्दर ने इसे पहले कभी नहीं खोला था , परन्तु नम्बर जरूर जानता था—नम्बर मिलाकर उसने बड़ी सरलता से सेफ खोल ली।
सेफ नोटों की गड्डियों और पुराने कागजात से अटी पड़ी थी।
तलाश करने पर सिकन्दर को उसमें से एक हफ्ते पहले की 'डेट ' का "बॉण्ड पेपर" मिल गया। उसकी आंखें किसी अन्जानी खुशी के जोश में चमक उठीं।
फिर अचानक ही सिकन्दर के हाथ एक ऐसी डायरी लग गई , जिस पर शब्द 'व्यक्तिगत ' लिखा था …जाने क्या सोचकर सिकन्दर ने डायरी उठा ली।
डायरी से एक फोटो निकलकर फर्श पर गिर पड़ा।
यह किसी बहुत ही खूबसूरत युवा लड़की का फोटो या। उत्सुकता के साथ सिकन्दर ने फोटो उठा लिया।
फोटो को ध्यान से देखते ही वह चौंक पड़ा।
उसे लगा कि यह फोटो सर्वेश की मां की युवावस्था का है और यह ख्याल आते ही सिकन्दर के जेहन में बिजली-सी कौंध गई।
उसने पलटकर फोटो की पीठ देखी , वहां लिखा था— "मेरे दिल की धड़कन सावित्री।” और सिकन्दर अच्छी तरह जानता था कि यह
राइटिंग उसके डैडी न्यादर अली की है।
सिकन्दर ने जल्दी से डायरी खंगाल डाली।
अपने पिता और सावित्री नामक सर्वेश की मां के बहुत-से प्रेम-पत्र थे उसमें—सावित्री का एक पत्र यूं था—
'तुमने तो शादी कर ली न्यादर , लेकिन मैं हिन्दू ही नहीं बल्कि सावित्री भी हूं—वह , जो एक जीवन में किसी एक ही पुरुष को अपना पति मानती है। हालांकि अपना तन मैंने तुम्हें कभी नहीं सौंपा , परन्तु मन से तुम्हें ही पति स्वीकार कर चुकी हूं, अत: दूसरी शादी कभी नहीं करूंगी।
तुम बेवफा निकल गए न्यादर—हजार कसमें खाने के बाद भी तुम मजहब की दीवारों को फांदकर मुझे अपना नहीं सके—इतना ही नहीं , शादी भी रचा ली तुमने—यह भी न कर सके कि यदि सावित्री से शादी नहीं हो सकती तो किसी से भी न करते—मैं तुम्हें माफ नहीं कर सकी—जिस दिन तुमने शादी की , उसी दिन मैंने तुम्हें बेवफाई की सजा देने का निश्चय कर लिया था—मैंने सोच लिया था कि जिस दिन तुम्हारी पत्नी पहले बच्चे को जन्म देगी , चोर बनकर उसे चुरा जाऊंगी और पालूंगी।
मगर विधि शायद सब कुछ सोचने के बाद ही विधान लिखती है। मुझे सूचना मिली है कि तुम्हारी पत्नी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया है , भगवान ने खुद ही फैसला कर दिया।
एक तुम्हारा , एक मेरा।
आखिर ये लम्बी जिन्दगी काटने के लिए मुझे भी तो कोई सहारा चाहिए—पति के रूप में न सही , बेटे के रूप में तुम्हारा बेटा ही सही—एक नारी होने के नाते जानती हूं कि तुम्हारी पत्नी पर क्या गुजरेगी , फिर उस बेचारी का कोई दोष भी तो नहीं है , दोष तो सिर्फ इतना कि वह भी एक नारी है और तुम जैसे पुरुषों की करनी को भरने की तड़प सदियों से बेगुनाह नारी को ही तो सहनी पड़ती है। मेरा ऐसा करना दो कारणों से जरूरी है।
पहला , मुझे जीने का सहारा चाहिए—कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए , जिससे तुम्हें अपनी बेवफाई का हमेशा अहसास रहे। मैं जानती हूं कि यह पत्र अपनी पत्नी को दिखाने की हिम्मत तुममें नहीं है—सारी जिन्दगी उस बेचारी को यही कह-कहकर ठगते रहोगे कि तुम नहीं जानते कि बच्चे को कौन उठा ले गया। मैं तुम्हें कभी नहीं मिलूंगी।
—तुम्हारी सावित्री।
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