RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
राज सेठ श्यामसुंदर और उनके साथियों को सीधा अपनी हवेली में ले गया। बाहर वाली बैठक में उनके ठहरने का प्रबंध कर दिया। आदर-सत्कार के लिए नौकर-चाकर तो मौजूद थे ही।
चंद्रपुर में जमींदार रामदास की धाक थी। अतिथि-सत्कार के लिए तो दूर-दूर तक उनकी चर्चा थी। धन था, जायदाद थी, दो सौ तो जंगली घास के खेत थे... लंबी-लंबी और मोटी घास। दूर-दूर के व्यापारी घास के गट्टे के गढे खरीद ले जाते और शहरों में व्यापार करते थे। राज दूर के रिश्ते से उनका भांजा था। अपनी तो कोई संतान थी नहीं, बहन के विधवा होते ही वह उसे अपने पास ले आए थे, जब वह कोई पांच वर्ष का था। बाद में इसकी मां भी चल बसी और राज जमींदार साहब के ही घर का राज बन गया। समीप के ही शहर से उसे बी.ए. तक की शिक्षा दिलाई, उसे सभ्य बनाने में कोई कसर न रखी गई।
अब राज पढ़-लिखकर जवान हो चुका था और रामदास के टिमटिमाते हुए जीवन का अंतिम सहारा था। जीवन की यह यात्रा वह अकेले नहीं कर सकते थे। अब वह चाहते थे कि उनकी दुर्बल हड्डियों को तनिक आराम मिले, परंतु वह यह आराम अपने जीवन की पूंजी खोकर लेने के इच्छुक न थे। जमींदार साहब चाहते थे कि उनका काम राज संभाल ले। व्यापारियों से बातचीत, सौदा ठहराना, बाहर माल भिजवाना, यदि वह इस आयु में नहीं संभालेगा तो कब संभालेगा। अब वह बालक तो है नहीं!
इधर राज के हृदय पर इन हरी-भरी घाटियों के स्थान पर किसी और ही संसार का चित्रण खिंचा हुआ था। वह अपना जीवन इन सुनसान घाटियों में गलाने के लिए तैयार न था। वह इस नई भागती हुई दुनिया के साथ-साथ चलना चाहता था। परंतु यह विचार उसके हृदय के पर्दे से टकराकर ही रह जाते। उसने कई बार प्रयत्न किया कि वह जमींदार साहब से साफ-साफ कह दे परंतु कर्त्तव्य उसे ऐसी अशिष्टता की आज्ञा न देता।
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