RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
'माला मैं और कुछ सुनना नहीं चाहता। मैंने भूल की जो यहां चला आया।'
'और मैंने भी भूल की जो तुम्हें यह रहस्य बता दिया।'
'नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। तुमने तो किसी गिरते हुए को बचा लिया।'
'मैं तुम्हारा मतलब समझीं नहीं।'
'क्या करोगी समझकर? अच्छा तुम जाओ। पार्टी को देर हो रही होगी।' यह कहकर राज प्लेटफार्म की ओर चल पड़ा।
माला भी उसके पीछे-पीछे आ गई और कहने लगी, 'राज, जब तक मुझे नहीं बताओगे, मुझे तसल्ली नहीं होगी।' ।
'व्यर्थ में क्यों चिंतित होती हो? कोई बात नहीं जाओ, देर हो रही है।'
'तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो। अच्छा, चलती हूं। मेरे जैसा भी कोई मूर्ख होगा?' यह कहकर माला जाने लगी।
राज ने उसका हाथ पकड़कर कहा, 'सुनना चाहती हो तो सुनो, मैं भी डॉली से प्रेम करता हूं। और....।'
'और डॉली?'
'यह तो तुम जानती ही हो।' इतने में गाड़ी प्लेटफार्म पर आ गई। माला मौन खड़ी थी। राज गाड़ी की ओर लपका। माला वापस स्टेशन के बाहर आ गई और कार में बैठकर घर की ओर चल दी। राज रुका और उसे देखने लगा परंतु वह उसे दिखाई न दी।
माला घर पहुंची तो पार्टी का सब सामान तैयार था परंत राज की बात सुनने के बाद वह चिंतित सी थी। न वह उसके साथ जाती और न उसे कुछ पता चलता। आवश्यक वस्तुएं नौकरों के सिर पर उठवाकर वे सब साथ वाले बाग में पहुंच गए। चांदनी अपने पूर्ण यौवन पर थी। पास ही नदी बह रही थी। जय और डॉली 'बोटिंग' के लिए चले गए। अनिल और रानी आइसक्रीम बनाने लगे। मधु अनिल के मुंह का बाजा लेकर उसे बजाने लगी। माला का मन किसी भी बात में न लगा। वह कुछ दूरी पर एक पेड़ के पास आ खड़ा हुई। कुछ समय तक वह इसी प्रकार खड़ी दूर देखती रही। फिर पास पड़े बैंच पर बैठ गई। वह सोचती रही कि कैसा अनोखा प्रेम है, जिसमें दिन-रात एक दूसरे के निकट रहने पर भी एक जल रहा है और दूसरों को उसका पता तक नहीं।
'जरा देखू, आइसक्रीम तैयार हुई या नहीं।'
'हां, हां, अवश्य देखो। यदि हो गई हो तो हमारे लिए यहां भेज दो।' यह कहकर डॉली बैंच पर लेट गई और उसने अपना सिर जय की गोद में रख दिया। जय उसके बालों से खेलने लगा।
'राज के आने से कुछ मजा किरकिरा-सा हो गया था।'
'इसलिए तो उसे रात की गाड़ी से वापस भेज दिया है।'
'डॉली, तुम हो बहुत चतुर। उसके सामने तो मैं इस प्रकार डर-डरकर तुमसे बात करता था मानों वह मुझे खा ही जाएगा।'
'हो तो डरपोक ही न, प्रेम करना है तो फिर डर कैसा?'
'तुम तो जैसी डरती ही नहीं। तुम भी तो उसके सामने भीगी बिल्ली की तरह बैठ जाती हो।'
'करू भी क्या, घर के भेदिये से डरना ही पड़ता है।' दोनों हंसने लगे।
'डॉली, वह देखो तो सामने कौन आ रहा है।' जय ने डॉली का सिर अपनी गोदी से उठाते हुए कहा। डॉली घबराकर उठ बैठी। पर एक परछाई दूर उनकी ओर बढ़ती आ रही थी। डॉली भयभीत हो उठी। कुछ ही देर में वह परछाई उनके समीप पहुंच गई। परछाई एक पुरुष की थी जो कोट-पतलून पहने थे। उसके पास आते ही डॉली घबरा गई। उसकी जुबान खिंच गई और उसके मुंह से एक शब्द भी न निकल सका।
राज सामने खड़ा था। जय ने कुछ संभलते हुए पूछा, 'तुम गाड़ी में.....।'
'जी, परंतु गाड़ी मेरे पहुचने से पहले ही छूट गई।'
'अथवा यह कहिए कि भाग्य को तुम्हारा इस पार्टी में भाग लेना ही स्वीकार था और हमारा आकर्षण तुम्हें यहां तक खींच लाया।'
'जैसा आप समझें, आपका आकर्षण कहिए या मेरी ढिठाई।
'अच्छा तुम डॉली से बात करो, मैं सबको सूचना देता हूं।'
यह कहकर जय चला गया। डॉली अभी तक गुमसुम-सी बैठी उनकी बातें सुन रही थी।
उसने संभलते हुए अपनी साड़ी का पल्ला ठीक करना चाहा परंतु राज ने उसे खींचते हुए कहा, 'क्यों इसकी क्या आवश्यकता है। मुझमें और जय में क्या अन्तर है?' राज ने अपना मुंह डॉली की ओर से फेर लिया।
'यह आज तुम्हें क्या हो गया है?'
'कभी-कभी यह जंगलीपन सवार हो ही जाता है, विवश हूं।'
'शायद तुम्हें हमारा इस प्रकार अकेले बैठना पसंद नहीं?'
'मेरे पसंद न आने से क्या होता है। तुम्हें तो पसंद है न? और पसंद भी क्यों न हो, यह सुहावना समय, छिटकी हुई चांदनी।
मुझे अधिक बनाने का प्रयत्न न करो। अपने काम से मतलब रखो।'
'बहुत अच्छा, आगे से ऐसा ही होगा।'
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