RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
'अच्छा फिर मिलेंगे, मैं तो फिर भी यही कहूंगी कि उसका ध्यान छोड़ दो। जिस राह जाना नहीं उसकी नाप-तोल करने से क्या लाभ?' यह कहकर माला आगे चली गई और राज घर की ओर लौटा।
तो क्या वह उस मार्ग को छोड़ दे? डॉली से बात करते समय तो उसने निश्चय कर ही लिया था कि वह डॉली और जय के रास्ते में कभी नहीं आएगा परंतु माला की बातों ने उसे अपने निश्चय पर फिर से विचार करने को बाध्य कर दिया। इन्हीं विचारों के संघर्ष में डूबा वह घर पहुंचा। डॉली वापस आ चुकी थी। राज को देखते ही बोली, 'कहां गए थे?'
'जरा घूमने। माला आई थी।"
"कब?'
'तुम्हारे जाने के कुछ देर बाद ही।'
'कुछ कहती थी?'
‘ऐसे ही मिलने आई थी।' यह कहकर राज कमरे में चला गया। राज ईर्ष्या की आग में जलने लगा। दिन पर दिन उसे डॉली से खीझ होती जा रही थी। क्या वह उससे घृणा करने लगा था? एक रविवार को जब वह बाहर से लौटकर आया तो सेठ साहब ड्राइंगरूम में बैठकर एक व्यक्ति से बात कर रहे थे। कोई नए महाशय थे। राज ने पहले कभी उन्हें देखा न था। जब वह अंदर आने लगा तो सेठ साहब ने आवाज दी और राज उनके पास जाकर बोला, 'कहिए, क्या आज्ञा है?'
'यह है वह होनहार जिनको मैंने अपना सारा कारोबार सौंप दिया है।'
'तो यह है राज! बहुत प्रसन्नता हुई इनसे मिलकर। आओ बेटा, बैठो।' वे बोले और राज पास ही सोफे पर बैठ गया।
'और राज, यह हैं बैरिस्टर मधुसूदन, जो हमारे सामने वाली कोठी में रहते हैं। जय को तो तुम जानते ही होगे, यह उसके पिता है।' मानो राज को किसी ने डस लिया हो। वह जय का नाम सुनते ही कांप गया। तो यह हैं उसके पिता। सामने रहते-रहते इतना समय बीत गया और अब मेल-जोल बढ़ाना शुरु किया?
'अच्छा मैं चलता हूं। क्या आप खाना खा चुके?' राज ने उठते हुए कहा।
'मैं तो खा चुका हूं। डॉली खा रही होगी। तुम भी खा लो।'
राज सीधा खाने के कमरे में पहुंचा। डॉली खाना खा रही थी परंतु अकेली नहीं जय भी साथ था। उसे देखते ही बोली, 'आओ राज, बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद खाना अभी शुरु किया है।'
'प्रतीक्षा के लिए धन्यवाद!' उसने कुर्सी पर बैठते हुए कहा और प्लेट आगे कर ली।
डॉली ने साग का कटोरा पकड़ाते हुए कहा, 'क्यों, आज कुछ गुस्से में हो, किसी से लड़ाई तो नहीं हुई?'
'हो सकता है।' उसने जय की ओर देखते हुए उत्तर दिया। जय सिर नीचा किए चुपचाप खाने में तल्लीन था।
'जीता कौन?'
"फिर तो बहुत शूरवीर हो।'
'मैंने हारना नहीं सीखा।'
'फिर तो बहुत भाग्यवान हो।'
'मैं सब-कुछ हूं परंतु निर्लज्ज नहीं।' यह कह उसने कुर्सी छोड़ दी।
'यह आज तुम्हें हुआ क्या है? खाना क्यों छोड़ दिया?'
'भूख नहीं है।'
'अनोखी बात है, अभी तो खाने बैठे और अभी भूख नहीं!'
राज उत्तर दिए बिना ही कमरे से बाहर निकल गया। 'मैं अभी आती हूं जय।' डॉली यह कहकर राज के पीछे-पीछे गई और बोली, 'राज, तुम्हें ऐसा न करना चाहिए था।'
'क्या किया मैंने?'
'खाना क्यों छोड़ दिया? कम-से-कम अतिथि का तो ध्यान रखना चाहिए।'
'क्या अतिथि का ध्यान रखने के लिए तुम कम हो?'
'राज, तुम सीमा से बाहर होते जा रहे हो।'
'तुम जाओ डॉली, जय कहीं प्रतीक्षा में खाना न छोड़ दे। विश्वास रखो, मेरा प्रेम और आदर तुम्हारे लिए किसी प्रकार भी कम न होगा।'
'बहुत आदर करते हो! ढोंगी कहीं के!' और आवेश में भरी डॉली बाहर जाने लगी, परंतु राज ने उसका हाथ पकड़कर उसे रोक लिया और कहा "डॉली, मुझे गलत न समझो।'
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