RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
रात के कोई दो बजे होंगे, चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। सब गहरी नींद का आनंद ले रहे थे। डॉली अपने बिस्तर पर बेहोश सो रही थी कि अचानक किसी की आहट से चौंक-सी गई। 'तुम? इस समय यहां?'
"हां, मैं ही तो हूं।'
'इतनी रात गए यहां क्या करने आए हो?'
'घबराओ नहीं चोरी करने नहीं आया।'
'और किसलिए....?'
'डॉली, मैंने सुना है कि जय से तुम्हारी बात पक्की हो रही है?' उसने पास आते हुए पूछा।
'संभव है कि तुमने ठीक सुना हो।'
'इसमें संभव की क्या बात है।' डैडी कह रहे थे।
'क्या डैडी की बात पर विश्वास नहीं जो पूछने आए हो?'
'विश्वास तो है पर तुम्हारे मुंह से भी सुनना चाहता हूं।'
'सुनना चाहते हो तो जो डैडी ने कहा है, ठीक है।'
'तो तुम प्रसन्न हो?'
'इसमें प्रसन्न होने की बात ही क्या है?'
'डॉली, इतनी क्रूर न बनो। मेरे प्रेम को इस तरह न ठुकराओ।'
'मेरा तुम्हारे साथ कोई संबंध नहीं।'
'मेरे प्रेम पर ध्यान दो।'
'मेरे हृदय में तुम्हारे लिए न कभी प्रेम था, न है, न कभी होगा।'
'तो क्या वह सहानुभूति और विश्वास सब मिथ्या थे?'
'यदि मेरी सहानुभूति को तुम गलत समझ लो तो इसमें मेरा क्या दोष है? सहानुभूति तो एक मानवीय कर्त्तव्य है। सहानुभूति तो आवारा कुत्तों से भी की जा सकती है, तुम तो फिर भी....।'
'डॉली संभलकर बात करो, यह न भूलो कि मेरी भी इज्जत है।'
'आज से पहले अवश्य तुम्हारी इज्जत थी, परंतु जब तुम इतने गिर सकते हो कि इतनी रात गए अकेले यहां आकर मेरी बेइज्जती करने लग जाओ तो....'
'यदि तुम आधी रात के समय चोरी से खिड़की फांदकर किसी से मिल सकती हो तो मेरे यहां आने में क्या आपत्ति हो सकती है?'
'आधिक बातें बनाने की आवश्यकता नहीं, नहीं तो अभी डैडी को जगाती हूं। अपनी बेइज्जती अपने-आप ही कराओगे।'
'मुझे धमकी देने की कोई आवश्यकता नहीं। तुम प्रसन्नता से उन्हें जगा सकती हो। मैं कोई चोरी करने के इरादे से नहीं आया, अपना अधिकार समझ कर आया हूं।'
'कैसा अधिकार?'
'तुम पर। सच बताओ डॉली, जय तुम्हें क्या दे सकता है जो नहीं दे सकता?'
'मुझसे बहस करने की आवश्यकता नहीं। मेरा इतना कह देना ही तुम्हारे लिए बहुत है कि मैं तुम्हें पसंद नहीं करती।'
'इसलिए कि मैं किसी बैरिस्टर का लड़का नहीं, इसलिए कि मेरे पास कोठी नहीं है और न ही घूमने के लिए कार है।'
'जब यह समझते हो तो मेरा पीछा छोड़ दो।'
"परंतु डॉली, तुम्हें खरीदने के लिए क्या मेरा दिल पर्याप्त न था।'
'यदि कोई ग्राहक किसी वस्तु का मूल्य न दे सके तो उसका विचार ही छोड़ देना चाहिए।'
'तुम तो कहती थीं कि मैं रुपये से अधिक मनुष्य का आदर करती हूं। यह भी ध्यान रहे कि जिस वस्तु को मनुष्य अधिक पसंद करता है, वह उसे खरीदने की शक्ति न होने पर छीन लेता है।'
'तो वह मनुष्य न होकर लुटेरा हुआ।'
'कभी-कभी मनुष्य को लुटेरा बनना पड़ता है।'
"तुम तो कहते थे कि तुम कोई गिरा हुआ मार्ग न अपनाओगे, जिससे तुम्हारे आचरण पर धब्बा आए।'
'वह एक भ्रम था, यह एक वास्तविकता है।'
'तो इसी प्रकार तुम्हारा प्रेम भी एक धोखा था?'
'और अब तुम्हें पा लेने की धारणा वास्तविकता है।'
'इसका भ्रम भी अपने मन से निकाल दो।'
'तुम पर मेरा अधिकार है।'
'असंभव है।'
'तुम्हें मुझसे कोई छीन नहीं सकता।'
"वह देखा जाएगा। अब आप कृपा करके बाहर चले जाइए।'
"निराश होकर?'
'तो ठहरिए, अभी बताती हूं।' यह कहकर डॉली ने दरवाजा खोला और बाहर जाने लगी।
'कष्ट करने की आवश्यकता नहीं है, डैडी अपने बिस्तर पर नहीं है।'
'कहां है?' डॉली ने आश्चर्य से पूछा।
"रात को वापस नहीं आए, टेलीफोन आया था कि एक मित्र के घर ठहर गए हैं।'
'क्यों ?'
'शहर में कयूं लग जाने के कारण।'
'अब समझी कि तुममें इतना साहस कैसे हुआ।'
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Re: घाट का पत्थर
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Post by rajsharma » 23 Feb 2020 15:03
'डॉली, सच मानो, मैं किसी बुरे विचार से नहीं आया।'
'मुझे परेशान करने की आवश्यकता नहीं, यहां से चले जाइए।'
'क्या उत्तर लेकर?'
'मेरा विचार छोड़ दो। मैं तुम्हारी नहीं हो सकती। अब डॉली के स्वर में नम्रता थी। वह भय से कांप रही थी।'
'यह असंभव है, डॉली।'
'राज, अब तुम्हारे हृदय में मेरे लिए घृणा है। मुझे अपनाकर क्या करोगे?'
'घृणा और प्रेम में थोड़ा अंतर है, एक का दूसरे में बदल जाना संभव है।'
"किंतु मुझे ऐसे प्रेम की आवश्यकता नहीं। और वह धीरे-धीरे दरवाजे के पास जा पहुंची।'
'मुझे तो आवश्यकता है।' राज ने डॉली का हाथ पकड़ लिया।
'राज, मुझे तुम्हारे विचारों से सहानुभूति नहीं।' उसने अपना हाथ छुड़ाया और तेजी से भागकर ड्राइंगरूम में जा पहुंची और बाहर का दरवाजा खोलने लगी। राज भी उसके पीछे-पीछे वहां पहुंचा।
'कहां जा रही हो?' राज ने डॉली को पकड़ते हुए कहा।
'बाहर, मैं रात को अकेली नहीं रह सकती।'
'इतनी रात गए कहां जाओगी?'
'कहीं भी जाऊं, तुम्हें इससे क्या?'
'मुझे बहुत कुछ है।' यह कहकर वह डॉली का हाथ पकड़कर उसे खींचते हुए कमरे में ले गया और पलंग पर गिरा दिया। 'डॉली, मैं इतना नीच नहीं। तुम मेरे पास सेठ साहब की धरोहर हो।' यह कहकर वह दरवाजे से बाहर जाते-जाते बोला 'आज तक सुनता आया हूं कि मनुष्य प्रेम में पत्थर से भी पानी निकाल सकता है, परंतु अब सोचता हूं कि मनुष्य जो काम प्रेम से नहीं कर सकता वह घृणा से पूरा कर सकता है।' यह कहकर राज ने दरवाजा बंद करके बाहर से कण्डा लगा दिया। बाहर ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी परंतु उसका शरीर तवे की भांति गरम था। उसके अंदर एक आग-सी लगी थी। उसने बाग में लगे फव्वारे को खोल दिया और उसके नीचे घास पर लेट गया। थोड़ी ही देर में वह पानी में डूब-सा गया परंतु उसके शरीर की ज्वाला शांत न हुई। अगले दिन इतवार था। सेठजी सवेरे ही वापस पहुंच गए और नहा-धोकर राज को बुला भेजा। परंतु राज काम नहीं करना चाहता था। उसने सिरदर्द का बहाना करके छुट्टी पाई और अपने कमरे में लेटा रहा।
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