RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
डॉली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी। सामने की खिड़की खुली थी। नीले आकाश पर तारे आंख-मिचौनी खेल रहे थे, परंतु उनके संकेतों को चंद्रमा की सुंदर चांदनी ने फीका कर दिया था। वह उठी और खिड़की के पास जा खड़ी हुई और बाहर की ओर देखने लगी। रात्रि के अंधकार में समुद्र के जल पर बिखरी चांदनी उसे बहुत ही भली लग रही थी। अचानक किसी के पांवों की आहट सुनाई दी। किसी ने धीरे-से कमरे में प्रवेश किया और दरवाजे में चिटकनी लगा दी। डॉली संभली, शरमाई और मुंह दूसरी ओर फेरकर बाहर बिखरी हुई चांदनी को देखने लगी।
आगन्तुक धीरे-धीरे पैर बढ़ाता डॉली के समीप पहुंच गया। डॉली ने लज्जा से सिर झुका लिया।
'यह सब हमसे शर्म कैसी?'राज ने उसके सिर से चूंघट उतार दिया और उसका मुख अपनी ओर कर लिया।
अभी तक डॉली की आंखों में दो आंसू जमे हुए थे।
'मायके की याद सता रही है क्या?'
डॉली रो पड़ी। राज ने उसके हाथों से रूमाल लेकर उसके
आंसू पोंछे और बोला, 'अब भूल जाओ बीती बातों को, जो होना था वह हो चुका।'
'राज, मुझे उन बातों का कोई दुःख नहीं, परंतु हमारे बीच में अब जो घृणा का पर्दा सा पड़ गया है क्या वह हमारे भावी जीवन पर कोई प्रभाव न डालेगा?'
'यदि हम दोनों चाहे तो सब ठीक हो सकता है।'
'वह कैसे?'
"पिछली सब बातें भुलाकर।'
'परंतु तुम्हारे दिल में तो अब भी वही हठ है।'
'मुझे गलत समझने का प्रयत्न न करो। तुम सोच रही होगी कि मैं डैडी के कहने पर भी तुम्हें यहां ले आया। उनका कहना भी ठीक था कि मैं तुम्हारी कोठी में रहूं।'
'तुम्हें मेरी डैडी की ओर से....।'
'कोई शिकायत नहीं।' राज ने बात काटते हुए कहा, 'यही पूछना चाहती थीं ना? छोड़ो उन बातों को। देखो, सामने चांदनी समुद्र की लहरों से मिल-मिलकर क्या संदेश सुना रही है, इस नए स्थान को देखकर तुम्हारे हृदय में जो झिझक, भय और लज्जा है वह नई दुल्हन का वास्तविक आभूषण है। दुःख केवल इस बात का है कि तुम अपनी ससुराल में अकेली हो।'
डॉली ने देखा कि राज की आंखों में दो आंसू चमक उठे। वह उसके कुर्ते पर लगे बटन से खेलती हुई बोली, 'राज जब तुम हो तो मुझे कोई कमी नहीं है। मेरा संसार तो तुम ही हो।'
'यदि ऐसा समझती हो तो मेरा सौभाग्य है।' राज ने डॉली को अपनी बांहों में भर लिया। डॉली भी आज निःसंकोच आज राज के वक्ष से लिपट गई। छोटी-छोटी बदलियों ने थोड़ी-सी देर में घटा का रूप धारण कर लिया और चांद को अपने आंचल में छिपा लिया। चारों ओर घना अंधकार छा गया। डॉली भागकर अपने पलंग पर जा लेटी।
राज ने लपककर उसे रोकना चाहा परंतु उसके हाथ में केवल उसका दुपट्टा ही रह गया। उसने दुपट्टा एक ओर फेंक दिया और पलंग पर डॉली के निकट जाकर बैठ गया। हवा तेज होती गई। समुद्र की लहरें गर्जना-सी कर रही थी। खुली हुई खिड़की के किवाड़ जोर-जोर से बज रहे थे परंतु उन दोनों का ध्यान इस ओर न था।
……………………………
पूर्व दिशा में दिनकर ने झांका। अंधेरा पेड़ों के नीचे जा छिपा। सूर्यदेव की किरणें खिड़की के मार्ग से कमरे में आने लगीं। पर वे दोनों पलंग पर बेसुध पड़े थे। डॉली का सिर राज की छाती पर था। राज की आंख खुली तो उसने घड़ी की ओर देखा। आठ बज रहे थे। दिन चढ़ चुका था। डॉली अभी तक सो रही थी। वह डॉली की नींद खराब नहीं करना चाहता था, परंतु अपनी छाती पर से जब वह उसका सिर उठाएगा तो वह अवश्य जाग जाएगी। यह सोचकर वह उसी प्रकार लेटा रहा। पलंग पर बिखरे हुए फूल मुरझा चुके थे। फूलों के बिखरे जाल के बहुत-से धागे टूट चुके थे। राज ने उसके बालों को अपनी उंगलियों में लपेटना शुरु कर दिया और धीरे-से बोला.... 'डॉली!'
'ऊं हूं'- डॉली ने एक लंबा सांस लेते हुए कहा। परंतु उसकी आंखें अभी तक बंद थी।
'डॉली उठो। देखो, दिन निकल आया है।'
'तो क्या हुआ, तुम्हें कौन-सा दफ्तर जाना है?'उसने उठते हुए कहा।
'अच्छा जी! अभी से ऐसी बातें!'
'तो क्या बुढ़ापे में ऐसी बाते करोगे?'
राज हंस पड़ा और बोला, 'तुम जो कहो सिर आंखों पर।'
'राज तुम्हारी इच्छा पूर्ण हुई। भविष्य के लिए क्या सोचा?'
'अभी से इसकी तुम्हें चिंता क्यों? वह मेरा काम है और मैं
जानता हूं कि मुझे क्या करना है।'
'आखिर मुझे भी तो कुछ पता चले।'
'तुम्हें क्या लेना है यह पूछकर?'
'मैं जीवन की आधी भागीदार जो हूं।'
'अच्छा यह बात है। धीरज रखो, सब जान जाओगी।' यह कहकर राज उठा और नहाने चला गया। नहा-धोकर दोनों ने साथ जलपान किया और तैयार होकर डैडी की कोठी जा पहुंचे। डॉली के कहने पर सेठ साहब राज को फिर फैक्टरी में लेने को तैयार हो गए, परंतु यह सब कुछ होने के बाद भी उसने अपने ससुर की नौकरी की अपेक्षा यही ठीक समझा कि वह चंद्रपुर लौट जाए। राज का विचार था कि इस अवधि में वह अकेला चंद्रपुर जाकर अपनी हवेली का नक्शा बदल दे और कुछ नए ढंग का फर्नीचर लगा दे।
कुछ ही दिनों में डॉली राज के समीप आ गई ताकि राज और उसके बीच किसी प्रकार का संदेह शेष न रह जाए। राज उसकी प्रत्येक चेष्टा को बहुत ध्यान से देखता और यह ढूंढने का प्रयत्न करता कि उसमें कहीं कोई छल न हो। पिछली बातों के कारण दोनों के हृदय में एक शंका-सी थी।
जैसे-जैसे दिन बीतते गए डॉली उदास होती गई। वह सोचती कि इस प्रकार जीवन वह कैसे बिताएगी। यदि चंद्रपूर चली गई तो और भी अकेली हो जाएगी। न मित्र, न कोई सहेली, न कोई सोसाइटी और न कोई मनोरंजन का साधन। क्या वह अपना जीवन उन जंगलों में इसी प्रकार काट देगी?
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