RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
जय ने बातों ही बातों में डॉली के सब निश्चय बदल डाले। कहते है मनुष्य अच्छाई की अपेक्षा बुराई की ओर शीघ्र खिंच जाता है। डॉली भी जय की बातों में आ गई। जय के चले जाने पर डॉली मन ही मन सोचने लगी, जय ठीक ही तो कहता है। चंद्रपुर जाने पर तो वह एक बंदी के समान हो जाएगी और राज के संकेतों पर नाचना पड़ेगा। यदि वह बंबई में उसके घर रहे तो कोई अनुचित मनमानी न कर सकेगा और यहां उसे इच्छानुसार सब कुछ करने के लिए किसी की आज्ञा की आवश्यकता न होगी। मैं राज की पत्नी अवश्य हूं परंतु मेरी स्वतंत्रता छीनने का तो उसे कोई अधिकार नहीं। यदि वह किसी प्रकार की कठोरता का व्यवहार मुझसे करेगा तो मैं भी देख लूंगी और न जाने कितनी देर वह इसी प्रकार सोचती बैठी रही।
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दो-चार दिन बाद राज का एक पत्र डॉली को मिला जिसमें उसने लिखा था कि वह जल्दी ही अपना कारोबार जमाकर उसे लेने के लिए आएगा। डॉली ने पत्र पढ़ा और बड़बड़ाकर बोली, 'लेने आएगा। जैसे सब उसी की चलती है।' वह डैडी के पास गई। वह चंद्रपुर कभी न जाएगी। वह किसी प्रकार राज को यहां रोक लें। डैडी ने सांत्वना दी। वह प्रयत्न करेंगे। डॉली स्वार्थी होती जा रही थी। राज का प्रेम उसे एक दिखावा-सा जान पड़ा। वह प्रतिदिन जय के साथ घूमने जाती। जय भी जले पर तेल का काम करने लगा। वह डॉली को राज के विरुद्ध भड़काता।
इसी प्रकार दिन बीतते गए। सेठ श्यामसुंदर ने डॉली का जय से आवश्यकता से अधिक मिलना पसंद न किया, परंतु वह बातों ही बातों में उन्हें टाल देती - वह तो एक मित्र के नाते उससे मिलने चला आता है और कौन है जिसके साथ वह बाहर घूमने जाए। आपको तो समय ही नहीं मिलता। डॉली कहती।
सेठ साहब अपनी लड़की की बात सुनकर मुस्करा देते और कहते, 'अब तुम सयानी हो, जो चाहो करो। जरा राज के साथ सावधानी से चलना। कुछ लोग इतनी स्वतंत्रता पसंद नहीं करते।'
शाम के साढ़े पांच बजे थे। टैक्सी सेठ साहब की कोठी के सामने रुकी और राज सामान लेकर उतरा। आज वह पूरे दो महीने बाद वापस बंबई आया था। उसने आने की सूचना किसी को नहीं भेजी थी। वह बरामदे में पहुंचा। इधर-उधर देखा। कोई न था। संध्या का समय था। शायद कहीं बाहर गई, यह सोचकर उसने कमरे की ताली उठाई और जाकर दरवाजा खोलने लगा। आहट पाकर किशन आ पहुंचा और राज को देखकर बोला, 'राज बाबू, कब आए?'
'बस आ ही रहा हूं। देखो बरामदे में सामान रखा है, उठा लाओ।'
'बहुत अच्छा।' यह कहकर किशन जाने लगा।
"किशन, जरा सुनो तो।'
'जी।'
'डॉली कहां है?'
'वह तो सिनेमा देखने गई हैं, जय बाबू के साथ।'
"किसके साथ?' उसने फिर पूछा।
'वह सामने वाले बंगले में हैं ना जय बाबू उनके साथ।'
'क्या जय रोज यहां आता है?'
'पहले तो कभी-कभी आते थे, परंतु कई दिन से रोज ही आते है
'अच्छा तो बता कर गई है कि सिनेमा जा रही है!'
'जी, मुझसे तो कुछ नहीं कहा। वह जाने को मना कर रही थीं तो जय बाबू ने कहा, 'पास ही 'अरोरा' में जा रहे हैं। घर लौटने में देर भी न होगी।'
'अरोरा टॉकीज में! देखो तुम सामान रखो, मैं अभी आता हूं।' यह कहकर राज उल्टे पैर बाहर चला गया।
'मुंह-हाथ धोते जाइए।'
'अभी आ रहा हूं।' राज ने बाहर जाते-जाते उत्तर दिया।
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