RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
'दूसरे दिन सवेरे शंकर घोड़े पर सवार हाथ में दो सवारी के घोड़े लिए हवेली के बाहर आ पहुंचा। राज तैयार ही था। डॉली अभी भी तैयार न थी।' डॉली के सुनहरे विचारों का तांता राज की आवाज ने तोड़ दिया। 'आ रही हूं।' यह कहते हुए डॉली शीघ्रता से बाहर आई और हरिया से बोली, 'जरा मुन्नी का ध्यान रखना।' तीनों अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर सैर के लिए चल दिए। शंकर इसी प्रकार नित्य उनके घर पहुंच जाता और तीनों प्रतिदिन सैर के लिए निकल जाते।। एक दिन संध्या के समय जबकि शंकर कमरे में बैठा पत्र लिख रहा था. तो उसे दरवाजे पर किसी के पैरों की आहट-सी सुनाई दी और राज ने अंदर प्रवेश किया। शंकर उसे देखते ही बोला, 'आओ राज ' और वह कुर्सी छोड़ पलंग पर जा बैठा। कुर्सी उसने राज को बैठने के लिए दे दि
राज ने कहा, 'शंकर जल्दी में हूं। मेरे पास बैठने का समय नहीं।'
"ऐसी भी क्या जल्दी है?'
'मैं पास ही के गांव में एक आवश्यक काम से जा रहा हूं। चुंगी वालों ने मेरी बैलगाड़ियां रोक रखी हैं और ऊपर से बरसात का मौसम, रास्ते में सामान कहीं खराब न हो जाए।'
'तो फिर?'
'मेरे पास ऊपर जाने के लिए समय नहीं। जरा डॉली को सूचना दे देना कि दरवाजे आदि भली प्रकार से बंद कर ले। मैं कल दोपहर तक लौट आऊंगा?'
'अच्छा कह दूंगा और कुछ काम मेरे योग्य हो तो....।'
'बस यही बहुत है। अच्छा मैं चलता हूं।' यह कहकर राज बाहर निकल गया। शंकर ने जल्दी-जल्दी पत्र समाप्त किए और बरसाती उठाकर राज की हवेली की ओर जाने के लिए बाहर निकला।
शंकर हवेली की ड्योढ़ी पर पहुंचा ही था कि वर्षा आरंभ हो गई। बरामदे में डॉली खड़ी राज की प्रतीक्षा कर रही थी। शंकर को देखते ही बोली, 'क्यों राज कहां है? वह साथ नहीं आए?'
"वह पास के गांव में एक आवश्यक काम से गए हैं और कल दोपहर तक लौटेंगे। समय कम होने के कारण मुझे यह संदेश पहुंचाने को कह गए थे।'
'और कुछ...?'
'हां, उसने कहा था कि हवेली के दरवाजे अच्छी तरह बंद कर लेना और चौकीदार को भी सावधान कर देना।'
'उनका विचार है कि अकेली मैं डरती हूं।' उसने हंसते हुए कहा।
'फिर भी नारी हो, डरना तो हुआ।'
"ऊं हूं।' नाक चिढ़ाकर डॉली ने कहा।
'अच्छा डॉली, मैं चलता हूं। वर्षा तेजी से हो रही है। ऐसा न हो कि....।'
"ऐसी भी क्या जल्दी है! अभी आए और अभी चल दिए? बैठो कोई नई गप्प सुनाओ, कुछ समय ही कटेगा।'
'मुझे लौटकर भी जाना है।'
'अच्छा खाना खाकर चले जाना।'
'परंतु...।'
'मैं किंतु-परंतु कुछ नहीं सुनूंगी। आओ, इतनी देर में ताश की एक बाजी ही हो जाए।'
'तुम्हारे सामने न करना भी कितना कठिन है।' यह कहकर शंकर बैठ गया और डॉली भागकर ताश ले आई। दोनों खेलने लगे। अचानक उसने ताश के पत्ते फेंकते हुए कहा, 'डॉली बस करो, नौ बज गए।'
'इतनी जल्दी!' यह कहकर डॉली ने पत्ते संभाले और हरिया को शीघ्र खाना लाने के लिए कहा। दोनों बैठकर खाना खाने लगे। खाना खाते-खाते डॉली बोली, 'आप कितने अच्छे हैं! आपने तो यहां आकर मेरा जीवन ही बदल डाला। डॉली टकटकी बांधकर शंकर के मुख की ओर देख रही थी।'
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