RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
'तो क्या सचमुच तुम मुझे एक अच्छा आदमी समझती हो?'
'समझती नहीं, समझ चुकी हूं।'
'और यदि तुम्हें समझने में धोखा हुआ हो तो?'
'आप अच्छे या बुरे कैसे भी हों, परंतु मेरे लिए तो अच्छे आदमी है।'
'हो सकता है।' शंकर ने धीरे से कहा और चुपचाप खाना खाने लगा।
कुछ समय तक दोनों मौन रहे। डॉली ने मौन भंग करते हुए कहा, 'यदि राज आ जाए तो हमें इस प्रकार देखकर जल उठे।'
'भला क्यों?
"जिसके भाग्य में जलना ही हो वह भला प्रसन्नता का मूल्य क्या जाने!'
'यह कोई बात नहीं। राज की जगह मैं होऊं तो मैं भी जल उर्छ।'
'तो क्या आप भी ऐसा ही समझते हैं?'
"क्यों नहीं? प्रायः पुरुष यह सहन नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी उसकी अनुपस्थिति में उसके मित्रों के साथ इस प्रकार हंसे-बोले।'
'परंतु वह आपको पराया नहीं समझते।'
'यह तो मेरा सौभाग्य है। अच्छा छोड़ो ऐसी बातों को, जल्दी खाना खा लो, नहीं तो पीछे रह जाओगी।'
डॉली शंकर की बातें सुनती जाती थी और एकटक देखे जा रही थी।
'मेरी ओर क्या देखती हो, खाना खाओ।' दोनों फिर से खाना खाने लगे। थोड़ी-थोड़ी देर में दोनों सिर उठाकर एक-दूसरे को देख लेते। जब नजरें आपस में टकराती तो दोनों मुस्करा देते।
खाना खाने के बाद शंकर ने जाने की आज्ञा मांगी। वर्षा अब भी बहुत जोर की हो रही थी। डॉली बोली, 'इतनी बारिश में किस प्रकार जाओगे?'
"प्रतीक्षा करते-करते दस बज गए। यदि वह बंद न हो तो क्या किया जाए?'
'तो रात को यहीं रह जाइए।' शंकर ने देखा कि डॉली की आंखों में विनम्र अनुरोध भरा था। वह बोला, 'नहीं डॉली, मुझे जाना है। अच्छा नमस्ते। हरिया से कहो कि हवेली का दरवाजा बंद कर ले।' शंकर यह कहता हुआ बाहर निकल गया। डॉली देखती रही।
बाहर जोर से बादल गरजा। शंकर बरामदे में पहुंचा और उसने बरसाती उठाई। डॉली भागती हुई आई और निःसंकोच उससे लिपट गई। शंकर उसे अपने शरीर से अलग करते हुए बोला, 'क्यों, क्या कर रही हो डॉली?'
'आप इस तूफानी रात में अकेली छोड़कर न जाइए।'
'क्यों?'
'मुझे डर लगता है।'
'अभी तो तुम कह रही थीं कि तुम किसी से नहीं डरती।'
'वह मेरी भूल थी। भगवान के लिए आप मुझे इस प्रकार अकेली छोड़कर न जाइए, नहीं तो मैं....।'
'नहीं तो क्या होगा?'
'नहीं तो.... नहीं तो... कुछ नहीं। ऐसे ही पड़ी चीखूगी।'
'अजीब तुम्हारे कहने का ढंग है। चलो, अंदर चलो।' शंकर ने बरसाती उतार दी और डॉली के पीछे-पीछे कमरे में आ गया।
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