RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
'हां, विचार तो कुछ ऐसा ही है।' शंकर ने हंसते हुए उत्तर दिया। शंकर के इस उत्तर से राज का पारा और भी चढ़ गया और वह बरामदे में तेजी से चक्कर काटने लगा।
'राज, यदि आज्ञा हो तो एक बात पूंछु?'
'कहो।' राज ने शंकर के पास आते हुए कहा।
'आजकल तुम्हारे मन में एक अजीब विकलता देख रहा हूं। क्या यह पूछ सकता हूं कि इसका कारण क्या है?'
'क्यों नहीं, प्रत्येक मित्र का यह कर्त्तव्य होता है कि वह दूसरे मित्र के दुःख को अपना दुःख समझे और उसकी सहायता करे। 'तो प्रतिज्ञा करते हो कि सहायता करोगे?'
'क्यों नहीं?'
'तो सुनो, मेरी वेदना और विकलता का कारण तुम हो।'
'मैं?'
'हां, और यदि तुम चाहते हो कि मैं सुख-चैन से जीवन व्यतीत करू तो भविष्य में कभी इस हवेली में न आना।'
'तुम यही चाहते हो तो ऐसा ही होगा।' शंकर ने अपना सिर झुकाते हुए कहा और ड्योढ़ी की ओर जाने लगा। यह सब सुनने पर भी उसके चेहरे पर कोई विशेष परिवर्तन न आया था। मानों यह सब कुछ पहले से ही जानता हो। कुछ दूरी पर शंकर रुका और फिर राज के निकट आकर बोला, 'यदि कोई विशेष आपत्ति न हो तो कारण भी बता दो। मुझको कुछ तो संतोष होगा।'
'अनजान बनने का प्रयत्न न करो। इसका कारण मुझसे अधिक तुम स्वयं जानते हो।'
'तुम ठीक ही कहते हो। मैं सब जानता हूं, परंतु मैं स्वयं प्रकाश में रहकर तुमको अंधेरे में नहीं रखना चाहता।'
'मुझे ऐसे उजाले की आवश्यकता नहीं जो मेरी आंखें फोड़कर मुझे सदा के लिए अंधेरे में छोड़ दे।'
'परंतु राज, जो कुछ भी तुमने सोच रखा है वह सब गलत है। वह एक संदेह के अतिरिक्त और कुछ नहीं।' ।
'यह तुम कह रहे हो? तुम ही नहीं, तुम्हारी जगह जो भी होता यही कहता। कितना अच्छा होता, यदि तुम मेरी जगह होते और मैं तुमसे यही प्रश्न करता।'
'परंतु डॉली ऐसी नहीं। मनुष्य को जितना गिराया जाए वह उतना ही गिर सकता है। यदि उठाने का प्रयत्न किया जाए तो उतना....।'
'इसका अर्थ यह हुआ कि तुम मेरी पत्नी को मुझसे अधिक समझते हो?'
'हो सकता है।'
'क्यों नहीं? दिल मिले हों तो एक रात में मनुष्य क्या नहीं जान पाता?'
'राज, होश में रहकर बात करो।'
'तो क्या यह सब गलत है।'
"गलत बिल्कुल गलत है।'
'तो क्या रात भर तुम इस हवेली में नहीं रहे?'
'रहा हूं।'
"किसकी इच्छा से?'
'अपनी इच्छा से, डॉली को अकेला छोड़ना मैंने उचित नहीं समझा।'
‘परंतु खाना खाते ही तुम तो जाने के लिए तैयार हो गए और बरसाती पहनकर बरामदे तक पहुंच गए थे। फिर कौन-सी वस्तु तुम्हें लौटा लाई।'
शंकर चुपचाप खड़ा रहा। राज ने बनावटी मुस्कराहट होंठों पर लाते हुए कहा, 'तो वह डॉली थी?' 'दूसरे शब्दों में तुम अपनी इच्छा से न रुककर डॉली की इच्छा से रुके थे।'
'राज, मैं फिर भी यही कहूंगा कि इस बेकार के चक्कर में पड़कर परेशानी मोल लेने से कोई लाभ न होगा। समय तुम्हें अपने-आप ही यह बता देगा कि कौन ठीक है।'
'परंतु मैं समय से पहले ही सब कुछ जान जाता हूं।'
'अपनी बुद्धि पर आवश्यकता से अधिक विश्वास ठीक नहीं।
यदि समय से पहले जान जाते तो ऐसा न कहते।'
'तुम ही कह देते ताकि मुझे आवश्यकता न पड़ती।'
'कोई बात हो तो कहूं।'
'तो कहो, आधी रात के समय डॉली तुम्हारे कमरे में क्यों आई?'
शंकर ने कोई उत्तर नहीं दिया।
राज ने फिर पूछा, 'और इतनी रात गए बरामदे की सीढ़ियों पर तूफान में तुम क्या कर रहे थे? शंकर, क्या यह सब तुम दोनों को दोषी ठहराने के लिए कम है?'
'इस समय मैं इन प्रश्नों का उत्तर देना उचित नहीं समझता।'
शंकर यह कहकर जाने को तैयार हो गया और बोला, 'परंतु जाते-जाते इतना अवश्य कहे देता हूं कि डॉली का मेरे साथ इससे अधिक कोई संबंध नहीं जितना एक बहन का भाई से।' शंकर अभी पूरी बात कह भी न पाया कि राज ने उसके मुंह पर थप्पड़ दे मारा।
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