RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
'घोड़ा गाड़ी नीचे आ गई है बीबीजी।' हरिया ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा।
'अच्छा, तुम सामान रखो, मैं आती हूं।' यह कहकर वह बरामदे की ओर बढ़ी और अंतिम बार राज की ओर देखा। राज हैरान था कि यह सब होने पर भी डॉली की आंखों में एक भी आंसू न था। वह डॉली की आवाज सुनकर चौंक पड़ा। वह कह रही थी, मैं जा रही हूं। राज मूर्तिवत खड़ा रहा। उसने सोचा लोगों से जाकर क्या कहेगी। लड़की साथ क्यों नहीं लाई। और लड़का-लड़की होती तो मेरा क्या बिगाड़ लेती, परंतु हो सकता है कि कल जब यह बालक बंबई के वातावरण में बड़ा हो जाएगा तो मेरे लिए एक दिन भय का कारण बन सकता है। हो सकता है कि डॉली अपना बदला लेने के लिए उससे कुछ काम ले और अगर न भी ले तो जब इसे पता लगेगा कि इसकी मां क्यों चंद्रपुर से चली गई तो स्वयं बदला लेने के लिए अवश्य आएगा। अचानक इस प्रकार के विचार उसके हृदय में उठने लगे। परंतु वह करता भी क्या।
डॉली की आवाज ने उसे फिर चौंका दिया, मैंने कहा, 'मैं जा रही हूं।'
'ओह, अच्छा , परंतु।'
'क्यों ?'
'इस बच्चे को तुम साथ नहीं ले जा सकती।'
'परंतु क्यों?'
'कोई विशेष बात तो नहीं। ऐसे ही। अपनी एक निशानी तो मेरे पास छोड़ जाओ।'
'अभी तो यह....।'
'इसकी तुम चिंता न करो। सब प्रबंध हो जाएगा।'
'कहीं इसे कुछ....।'
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'मुझ पर विश्वास करो। इसे छोड़ने में ही तुम्हारी भलाई है।'
डॉली कुछ देर मौन खड़ी सोचती रही। यदि वह इस बालक को वहां छोड़ दे तो संभव है कि राज अपने कहे पर शीघ्र ही पछताए। राज ने उसे इस प्रकार जाते देखा और चुपचाप खड़ा रहा। ड्योढ़ी तक पहुंचने पर डॉली ने केवल एक बार मुड़कर देखा और बाहर निकल गई।
'हरिया, हरिया।' राज ने आवाज दी।
'जी!'
'देखो, स्टेशन तक बीबीजी के साथ जाओ। इन्हें अच्छी तरह आराम से गाड़ी में बिठा देना और यह लो पांच सौ रुपये। जब गाड़ी चलने लगे तो डॉली को यह मेरी ओर से दे देना। जाओ जल्दी से।'
हरिया ने रुपये ले लिए और उन्हें अंगोछे के पल्ले में बांधता हुआ जल्दी से ड्योढ़ी के बाहर चला गया। डॉली के जाने के बाद राज ने पालने में पड़े बालक को देखा, वह चुपचाप सो रहा था। उसके मुंह से निकला, 'निशानी, निशानी, अंतिम निशानी... मुझे संभालकर रखनी होगा। मनुष्य के पास तीन वस्तुएं होती हैं, आदर, हृदय और जीवन जिन्हें वह खोना नहीं चाहता। एक मैं हूं। हृदय तो रहा ही नहीं। आदर मेरा मेरे सामने जा रहा है। बाकी रहा यह जीवन जो आदर और हृदय के बिना कुछ भी तो नहीं।'
परंतु राज जीवन में कभी नहीं हारा था। वह प्रत्येक आपत्ति का सामना कर सकता था। वह अपना जीवन हृदय और आदर के बिना बिता सकता था। 'मुनीमजी।' राज ने आवाज दी।
'जी!' मुनीम भागता हुआ आया।
'जाओ. एक आया का प्रबंध करो जो इस बच्चे को पाल सके। परंतु ध्यान रहे कि किसी नीच वंश की न हो।'
'परंतु ऐसी मिलेगी कहां'
'क्या कहा?
खैर चिंता न करो, समझो मिल गई।' यह कहते हुए राज कमरे से जाने लगा।
'हुजूर कौन?' राज रुक गया और मुस्कराते हुए बोला, 'तुम्हारी बहू।'
दूसरे ही दिन से दोनों का पालन-पोषण मुनीमजी की पत्नी सुंदरी को सौंप दिया गया और बालकों को सब प्रकार का आराम पहुंचाने का प्रबंध किया गया। धीरे-धीरे बच्चे उसके साथ घुल-मिल गए। मुनीमजी के अपने बच्चे न थे इसलिए सुंदरी दोनों बच्चों का भली प्रकार ध्यान रख सकती थी। दोनों बालक बड़े होने लगे। लड़के का नाम रंजन रखा गया। कुसुम और रंजन जब चलने, फिरने और समझने लग गए तो सुंदरी मां के स्थान पर उनकी धाय बन गई। कुसुम को तो राज शहर ले गया और वहां बोर्डिंग में भर्ती करा दिया और रंजन को उसने अपने पास ही रखा। रंजन आठ वर्ष का हो गया परंतु राज ने अभी तक उसकी शिक्षा का कोई प्रबंध न किया। वह उसे पढ़ाना न चाहता था। राज की इच्छा यही लगती थी कि जीवन की सब अच्छी से अच्छी बातें कुसुम को सिखाए। परंतु डॉली को लड़के (जैसा कि वह समझता था) के लिए उसके दिल में कोई स्नेह न था बल्कि मन-ही-मन चाहता था कि वह आवारा बने।
रंजन जब थोड़ा बड़ा हुआ तो राज ने उसे संसार के प्रत्येक दुराचार के बारे में कुछ न कुछ बता दिया... कुछ तो कहानियों से और कुछ ताश के पत्तों से। जब कभी वह बुरी संगत की ओर अग्रसर होता तो राज उसे न रोकता। शंकर ने इस अवधि में दो-चार बार राज से मिलने का प्रयत्न किया परंतु राज ने उससे बात करना अस्वीकार कर दिया। डॉली के पत्र भी शंकर के पास आते थे ताकि उसे अपने बच्चों का समाचार मिलता रहे। डॉली और शंकर के बीच जो पत्र-व्यवहार होता था, उसका मुनीमजी के द्वारा राज को पता लगा गया। वह यह सुनकर जल उठता।
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