RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
डॉली बार-बार शंकर को लिखती कि वह किसी प्रकार राज को समझाए कि वह उस बालक का जीवन क्यों नष्ट कर रहा है परंतु शंकर विवश था। राज घृणा के प्रवाह में पड़कर बिल्कुल अंधा हो चुका था। वह यह न समझ सका कि घृणा का पौधा जो वह बड़ा कर रहा है, एक दिन उसे ही ले डूबेगा। बुरी संगत और जान-बूझकर दी गई ढील के कारण रंजन बिगड़ता गया। छोटी आयु में भी उसने पास के गांवों के जुए के अड्डे छान मारे। कई-कई दिन वह घर से बाहर रहता। अभी वह पंद्रह वर्ष का ही था कि उसकी गणना बदमाशों में होने लगी। राज छट्रियों में भी कसम को घर न बलाता। वह उसे वहीं से कहीं और सैर के लिए ले जाता और फिर वापस बोर्डिंग में छोड़ जाता। जब कभी वह रंजन के बारे में पूछती तो यही कहकर टाल देता कि वह उसकी अनुपस्थिति में जमीनों का ध्यान रख रहा है। राज के देखते-देखते रंजन काफी बिगड़ गया और उसे यह जानकर संतोष-सा हुआ। राज को थोड़ा होश उस दिन आया जब उसे सूचना मिली कि उसकी सेफ की नकली चाबी बनवाकर कई सौ रुपया निकल गया है। उसने रंजन से इसके बारे में पूछा तो उसने यही उत्तर दिया, जरूरत थी, इसलिए ले गया।
राज ने उसका यह साहस देखकर उसे बैंतो से मारा परंतु रंजन पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। राज ने रंजन का सब खर्च इत्यादि बंद कर दिया, परंतु एक दिन मुनीमजी रुपया लेकर घर लौट थे तो रास्ते में ही रंजन ने पिस्तौल से धमकाकर सब रुपया छीन लिया। राज का माथा ठनका। अब उसे अपनी भूल का पछतावा होने लगा। प्रतिदिन कोई-न-कोई नई बात हो जाती जो उसे चिंतित रखने के लिए पर्याप्त थी। रंजन रात को देर से घर लौटता और बहुत सवेरे ही घर से निकल जाता। उसका कोई पता न चलता कि वह कहां जाता है, कहां बैठता है और क्या करता है।
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हवा के हल्के-हल्के झोंके इधर-उधर बिखर रहे थे। प्रातःकाल का सुहावना समय था। सूर्य की प्रथम किरणों ने अभी-अभी चंद्रपुर की पहाड़ियों को चूमा था। चंद्रपुर के छोटे-से सुनसान स्टेशन पर दूर पड़े एक बैंच पर एक पक्की उम्र का व्यक्ति बैठा गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। उसका मुख प्रभावशाली था। प्लेटफार्म पर यात्री कम दिखाई दे रहे थे। यह व्यक्ति अपनी दृष्टि भूमि पर गाड़े चींटियों की पंक्ति को देख रहा था। अचानक वह किसी के पैर की ठोकर से चौंक गया। आने वाला सिग्नलमैन था जो उसे देखते ही बोला, 'जमींदार साहब क्षमा कीजिएगा, जल्दी में था।'
'कोई बात नहीं रामू। क्यों गाड़ी में कितनी देर है?'
'बस आने को ही है, सिग्नल ठीक करने जा रहा हूं। आप गाड़ी के इंतजार में....।'
'हां, गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठा हूं।'
"क्यों कोई आ रहा है?'
'मेरी बेटी आज शहर से शिक्षा समाप्त हो जाने पर लौटकर आ रही है। अभी बी.ए. पास किया है उसने।'
'अच्छा तो आप चलिए अंदर बैठ जाइए, बाबूजी के कमरे में।'
'नहीं, यहां खुली हवा में ठीक हूं।'
'अच्छा।' यह कहकर सिग्नलमैन सिग्नल की ओर चला गया
और जमींदार साहब फिर चींटियों की चलती हुई पंक्ति देखने में लग गए। थोड़ी-थोड़ी देर के बाद वह व्याकुल दृष्टि से सिग्नल की ओर देख लेते। सिग्नल डाउन होने के साथ ही उनकी विकलता भी बढ़ गई। आज चौदह वर्ष के बाद कुसुम चंद्रपुर लौट कर आ रही थी। राज सोच रहा था कि 'कितना अच्छा होता यदि डॉली भी आज उसके साथ आज कुसुम को लेने जाती।'
थोड़ी ही देर के बाद राज बाबू ने दूर गाड़ी का धुआं देखा और धड़कते हृदय से बैंच पर से उठे। वह संभलकर खड़े हो गए। गाड़ी प्लेटफार्म पर आ पहुंची और धीरे से बारी-बारी सब डिब्बे... राज बाबू प्रसन्नता से उस ओर लपके, 'कुसुम तुम आ गई।'
'जी मैंने सोचा शायद पत्र न मिला हो।'
'यह भला कैसे हो सकता है। आओ, नीचे उतर आओ।'
'और सामान....।'
'कोचवान, सामान बाहर निकालो।'
'यह सामने का बिस्तर, ट्रंक और यह टोकरी।' यह कहकर कुसुम नीचे उतर आई। राज बाबू ने अपने हाथ का सहारा दिया। जब डॉली पहले-पहले इस स्टेशन पर उतरी थी तब उसे भी उन्होंने इसी प्रकार सहारा देकर उतारा था। राज ने देखा कि कुसुम भी बिल्कुल मां पर गई है। वही लंबा कद, सुराहीदार गर्दन, सफेद चेहरा और मोटी-मोटी चंचल आंखें, होंठों पर वही शरारत भरी मुस्कराहट। बिल्कुल अपनी मां की जीती-जागती तस्वीर थी वह।
'यह आप मेरी ओर इस प्रकार क्या देख रहे हैं?'
'कुछ नहीं।' राज ने उसके मुख पर से दृष्टि हटाते हुए कहा।
'नहीं, कोई बात अवश्य है। क्यों, मेरी वेशभूषा अच्छी....।'
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