RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
'नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। समय की गति के साथ बढ़ना तो स्वयं भी मुझे पसंद है। लो गाड़ी चली भी गई और हमें पता भी न लगा। चलो, सामान बाहर ले चलो।' राज ने कोचवान से कहा। 'आओ कुसुम।'
दोनों द्वार की ओर बढ़े। स्टेशन मास्टर ने हाथ में टिकट लेते हुए कहा, 'तो यह है आपकी बिटिया जो शहर में शिक्षा पा रही थी। भगवान इसकी आयु बनाए रखे।' दोनों स्टेशन से बाहर पहुंचे। एक सुंदर फिटन स्टेशन के बाहर खड़ी थी। कुसुम उसे देखते ही बोली, 'यह कब ली बाबा?'
'थोड़े ही दिनों में, मैंने सोचा कि मेरी बेटी को यहां घूमने में कष्ट न हो।'
'कितने अच्छे हैं आप!'यह कहते ही कुसुम लपककर घोड़ागाड़ी में बैठ गई। राज भी उसके पास ही बैठ गए। थोड़ी देर के बाद गाड़ी गांव की सड़क पर हो ली। आज पूरे चौदर वर्ष बाद कुसुम वापस गांव लौट रही थी। उसने सोचा कि इस छोटे से स्थान में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हआ। जब वह बचपन में इसे छोड़कर गई थी तब से अब तक उसकी याददाश्त के अनुसार सब ठीक उसी प्रकार था।
'क्या सोच रही हो कुसुम?'
'कुछ नहीं। हां बाबा, आज तो रंजन को स्टेशन पर ले आते।'
राज यह सुनकर कांप गया, संभलकर बोला, 'काम पर गया है।'
'ऐसा भी क्या काम जो उसे इतना भी समय न मिला कि चौदह वर्ष से बिछुड़ी हुई बहन को लेने ही आ जाए।'
'क्या तुम्हें वह बहुत अच्छा लगता है?'
'यह भी भला कोई पूछने की बात है? मेरा भाई है और वह भी एक।'
"ठीक है...।'
'बाबा, अब तो वह बहुत बड़ा हो गया होगा?'
"बहुत बड़ा।'
'मुझे रात से तो बहुत याद आ रहा है और मैं उसे देखने को व्याकुल हूं।'
'पर क्यों?'
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'बाबा आज ट्रेन में कोई आधी रात का समय था। एक आदमी हमारे डिब्बे में घुस आया और वह भी चलती ट्रेन में। मेरे साथ की दोनों स्त्रियां आनंद से सो रही थीं और मैं भी
आंखें बंद करके सोने का प्रयत्न कर रही थी।'
'तो फिर क्या हुआ?'
'वह चुपके से मेरी सीट के पास आ खड़ा हुआ। मैं उसे इस प्रकार देखकर डर-सी गई और अपनी आंखें जोर से बंद कर लीं। मेरा दिल धड़कने लगा। डर से मेरा गला सूखा जा रहा था। मैंने कुछ साहस किया और अपनी एक आंख थोड़ी-सी खोलकर देखने लगी। वह दोनों हाथ आगे किए मेरी ओर बढ़ा आ रहा था। में उसका इरादा जान गई। वह मेरे गले का हार उतारना चाहता था। मैं चीखना चाहती थी परंतु मेरे गले से आवाज न निकल सकी। जब उसके हाथ मेरे बहुत पास आ गए तो मेरी दोनों आंखे खुल गई।
वह यह देखकर कांप गया और पहले दरवाजे के निकट जा खड़ा हुआ।' कुसुम बोलती-बोलती सांस लेने के लिए रुक गई।
"फिर क्या हुआ?'
'मैंने देखा कि वह किसी भले घर का जान पड़ता था। वह फिर ऐसा काम क्यों करता है। मुझे क्रोध के साथ-साथ उस पर दया आने लगी। मुझे न जाने उस समय क्या सूझी कि....।'
"कि मैंने गले से अपना हार उतारकर उसकी ओर बढ़ा दिया और बोली, तुम प्रसन्नता से ले जा सकते हो।'
'वह मेरी ओर आश्चर्यचकित हो देखता रहा और कांपती आवाज में बोला, बहन मुझे क्षमा कर देना। और चलती गाड़ी से उतरने के लिए दरवाजा खोला। यह तुम क्या कर रहे हो? तुम्हें अपने प्राणों की भी चिंता नहीं' मैंने निःसंकोच उससे कहा।
'मैं मृत्यु से नहीं डरता परंतु तुमसे मुझे आज डर लग रहा है।'
वह यह कहता हुआ दरवाजे के डंडे से लटक गया।
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