RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
राज के सामने रंजन का चित्र घूमने लगा और अनायास ही उसे ऐसा अनुभव हुआ मानों सारी भूल उसी की है, शंकर सब ठीक कह रहा है। उसको लगा मानों उसके सामने कमरे की सारी चीजें घूम रही हैं.... और वह जोर से चिल्लाया, 'शंकर मुझे अकेला छोड़ दो।' राज भागकर दूसरे कमरे में जाकर पलंग पर गिर पड़ा।
शंकर थोड़ी देर अकेला खड़ा रहा। फिर निराश होकर बाहर निकल गया। जब वह ड्योढ़ी में पहुंचा तो किसी नारी कंठ से निकली हल्की और पतली आवाज सुनाई दी जो पुकारकर
कह रही थी, 'सुनिए, जरा ठहरिए।'
शंकर आवाज सुनकर रुक गया और उसने घूरकर देखा। अंधेरे में एक छाया उसकी ओर बढ़ रही थी और पास आकर बोली, 'मैंने ही आपको पुकारा था।'
'ओह कुसुम! कहो क्या बात है?'
'मैं आपको जानती तो नहीं परंतु एक बात पूछना चाहती हूं। क्या आप...'
'क्यों नहीं, क्या पूछना है तुम्हें?'
'क्या आप रंजन का पता बतला सकते हैं?'
'क्या तुम नहीं जानतीं?'
"मुझे कुछ ठीक मालूम नहीं।' "देखिए, छिपाने का प्रयत्न न कीजिए। मैं आपकी और पिताजी की सब बातें सुन चुकी हूं।'
'ओह! यह बात है। परंतु जानकर क्या करोगी!'
'उससे मिलने जाऊंगी। आप जानते हैं, मुझे उससे मिले आज पूरे चौदह वर्ष हो चुके हैं।'
'तो सवेरे नीचे खेतों पर पहुंच जाना, मेरा आदमी तुम्हें साथ ले जाएगा, परंतु जमींदार साहब को पता लग गया तो....।'
'आप उनकी चिंता न करें। मेरे जाने से शायद बाबा का रुख बदल जाए।'
'यदि ऐसा हो तो इससे अधिक प्रसन्नता सब लोगों को और क्या हो सकती है। भगवान तुम्हारी अवश्य सहायता करेगा कुसुम।' यह कहकर शंकर अपने घर की ओर चला गया।
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