RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
कुछ देर चुप रहकर राज बाबू ने कहा, 'तो परसों संध्या समय ठीक सात बजे अंधेरा होते ही अपने प्रश्न का उत्तर ले जाना।'
'बहुत अच्छा। परंतु ध्यान रहे कि यदि किसी प्रकार की चालाकी करने का प्रयत्न किया तो मुझसे बुरा कोई न होगा।'
'अब तुम जाओ।' रंजन मुस्कराया। उसने खिड़की से बाहर छलांग लगा दी और थोडी देर तक घोडे की टापों की आवाज़ सुनाई देती रही जो धीरे-धीरे दूर होती गई। राज बाबू का दिल बैठा जा रहा था और वह चकराकर पलंग पर गिर पड़े।
कुसुम ने देखा कि रंजन के जाने के बाद कमरे में सन्नाटा छा गया है। धीरे-से दरवाजा खोलकर वह कमरे में आई और बाबा के पलंग की ओर बढ़ी। पास जाकर उसने कहा, 'बाबा, बाबा, क्या बात है?'
'कुछ नहीं बेटा, ऐसे ही भाग्य का खेल है।' और यह कहकर राज बाबू ने कुसुम को छाती से लगा लिया और उसके बालों पर प्यार भरा हाथ फेरने लगे। कुसुम बाबा की छाती पर सिर रखकर जोर-जोर से रोने लगी।
'अरे, इसमें रोने की क्या बात है। तू चिंता न कर, बाबा के होते तुझे कोई दुःख नहीं पहुंचेगा।'
'मुझे अपने दुःख की चिंता नहीं बाबा। रंजन के कारण आप....।'
'वह पागल क्या करेगा। तुम इसकी चिंता न करो।'
'नहीं बाबा, मैं सब सुन चुकी हूं। वह अब आपके काबू से बाहर है और किसी भी समय आपको हानि पहुंचा सकता है।'
"तुम ठीक कहती हो। अब तुमसे क्या छिपाऊं। मैं भी बहुत घबरा-सा गया हूं। समझ नहीं आता कि क्या करू?'
'आप उसे थोड़ा-सा हिस्सा देकर सदा के लिए जान छुड़ा लें। कुछ बदनामी अवश्य है परंतु तबाही से तो अच्छा है।'
'कुसुम, तुममें अनुभव की बहुत कमी है और तुम उस लड़के को नहीं समझतीं। अपना हिस्सा लेने के बाद भी वह हमें कभी चैन से न बैठने देगा।'
'तो फिर रुपया ही देकर जान छुड़ाएं।'
'रुपया। वह तो अपनी पेंशन समझकर मुझसे जब चाहेगा ले लेगा।'
"तो फिर क्या किया जाए?'
'जाओ, अब तुम सो जाओ। रात बहुत बीत चुकी। सवेरे देखा जाएगा।'
बाबा का आदेश सुन कुसुम अपने कमरे में चली गई। परंतु सारी रात दोनों को नींद न आई। कुसुम सारी रात सोचती रही। चंद्रपुर की इस छोटी-सी आबादी में उसका हितैषी है भी कौन जिसके सामने वह अपना दुखड़ा रो सके? और अचानक उसे शंकर का ध्यान आया। उसे ऐसा लगा मानों शंकर अपना निजी है। बाबा और उनमें बहुत जान-पहचान भी है और घरेलू बात में भी एक-दूसरे की बातें उन्हें मालूम होती हैं। परंतु लगता है किसी कारण आपस में बिगड़े हुए-से हैं। उस दिन की बातचीत से तो यही प्रकट होता था। यदि वह उनसे मिले तो शायद कुछ बात बन सके। सवेरा होते ही जब राज बाबू बाहर गए तो कुसुम भी तैयार होकर उनके पीछे-पीछे शंकर के घर जा पहुंची। शंकर ने कुसुम को आते देखा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। वह एकटक कुसुम की ओर देखता रहा।
'आप सोच रहे होंगे कि मैं यहां कैसे आ पहुंची?' कुसुम ने कहा।
'नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। तुम्हारा अपना ही तो घर है। तुम क्या जानो मैं तुम लोगों के कितना समीप था। उस समय तुम बच्ची थीं।'
'यही सोचकर तो मैं आई हूं।'
'क्या?'
'आप हमारे पुराने हितैषी हैं और....।' कुसुम कहते-कहते रुक गई।
शंकर ने यह देखकर कहा 'कहो-कहो... रुक क्यों गई?'
'और आप मुझे... नहीं, हमें एक विपत्ति से बचाएंगे।'
'कहो, ऐसी क्या बात है? जमींदार साहब तो....।'
'घबराने की कोई बात नहीं। सब कशल है। जरा....!' कसम ने चारों ओर देखते हुए कहा।
शंकर ने उसका अभिप्राय समझकर दरवाजा बंद कर दिया और कुसुम के पास आकर बोला, 'कहो, क्या कहना चाहती हो?'
कुसुम ने शंकर से सब बातें कह डालीं। शंकर ने जमींदार साहब की परेशानी को समझा और सोच में पड़ गया कि वह क्या करे। उनकी भूल है या भगवान की इच्छा। परंतु इस सर्वनाश से वह किस प्रकार बच सकते हैं। यदि बंटवारा कर दें तब भी मुसीबत और यदि अस्वीकार कर दें तब भी रंजन उन्हें चैन से न बैठने देगा। बहुत सोच-विचार करने के बाद उसने कुसुम को रंजन के पास जाने की सलाह दी।
'परंतु वह कभी न मानेगा।' कुसुम ने कहा।
'प्रयत्न करने में क्या हानि है! हो सकता है कि तुम्हारे वहां जाने से उसका विचार बदल जाए।'
'यदि आप ऐसा सोचते हैं तो मैं जाने को तैयार हूं।' कुसुम रंजन के पास गई।
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