RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
शंकर उसी समय घोड़ा लेकर स्टेशन पहुंचा और डॉली को तार द्वारा यह सूचना दे दी कि चाहे जिस प्रकार भी हो, वह अगले दिन संध्या तक चंद्रपुर पहुंच जाए।
राज बाबू जब घर लौटे तब तक कुसुम वापस न आई थी। वह समझ गए कि हो न हो कुसुम अवश्य रंजन के पास गई होगी। परंतु इस अबोध बालिका की बात वह कब मानने वाला है। यदि डॉली यहां होती तो शायद वह कहना मान लेता।
'मालिक!'
'ओह! हरिया, क्या?'
'खाना लाऊं?'
'अभी भूख नहीं है। कुछ देर ठहरो, कुसुम को आ जाने दो।'
'वह तो अपने कमरे में है।'
'मैं तो अभी देखकर आया हूं।'
'वह अभी आई हैं और सीधी अपने कमरे में चली गई हैं।'
'अच्छा।' यह कहते हुए राज बाबू बारहदरी से होते हुए कुसुम के कमरे में पहुंचे। कुसुम सामने की कुर्सी पर मूर्ति की भांति मौन बैठी थी। बाबा को देखते ही खड़ी हो गई।
'क्यों बेटा, निराश वापस आना पड़ा?' कुसुम बाबा की छाती से लगकर रोने लगी।
'इसमें रोने की क्या बात है? मूर्ख न बनो। मैं तो पहले से ही जानता था कि वह हमारे वश से बाहर है।'
'परंतु अब क्या होगा?'
'होना क्या है। वह मुझसे कुछ नहीं ले जा सकता। यह रुपया लेने की बात उसकी धमकी मात्र है, परंतु मैं आज तक इन धमकियों से कभी नहीं डरा।'
'परतु बाबा, इस बार उसके इरादे ठीक नहीं जान पड़ते। वह अपने साथियों के कहने पर सब प्रकार के अत्याचार करने में भी संकोच न करेगा।'
'शायद वह यह नहीं जानता कि मैं भी अधिक अत्याचार कर सकता हूं।'
"परंतु आप उसका सामना किस प्रकार करेंगे? वह तो कहता है कि यदि बाबा ने मेरे साथ कोई छल करने का प्रयत्न किया तो उनकी बनाई हुई नगरी और घास के सब खेत फूंककर रख दूंगा।'
'अच्छा! वह अब इन बातों पर भी उतर आया है। हरिया!' उन्होंने गरजते हुए हरिया को बुलाया। हरिया दौड़ा-दौड़ा आया।
'जाओ, मुनीमजी को बुला लाओ।' राज बाबू क्रोध में भरकर अपने कमरे में चक्कर लगाने लगे। उनकी आंखें अंगारे बरसा रही थीं। उनके माथे पर बल आते और मिटते थे। कुसुम यह देख घबरा गई। न जाने क्या विपत्ति आने वाली है, उसने सोचा। कुछ देर तो वह उसी
प्रकार बाबा को देखती रही, फिर साहस करके बोली 'मुंह-हाथ धो लीजिए। खाना ले आऊं?'
'मुझे भूख नहीं। तुम जाओ, खा लो।'
'थोड़ी सी....।'
'कह तो दिया कि मुझे भूख नहीं...।'
'अच्छा....।' और कुसुम चुपचाप कमरे में चली गई। थोड़ी देर में मुनीमजी आ पहुंचे और बोले, 'कहिए, क्या आज्ञा है?'
कुसुम दबे पांव अंदर आ गई। 'देखो सवारी का प्रबंध करो। मैं अभी शहर जाना चाहता
'परंतु अचानक...।'
'बहस के लिए मेरे पास समय नहीं है। कचहरी बंद होने से पहले ही मझे वहां पहुंचना है।'
'आप मालिक होने के साथ ही मेरे बड़े मालिक के बच्चे भी है और मैंने बच्चे की भांति आपको पाला है।'
'तो मैंने तुम्हारे साथ ऐसा कौन-सा अन्याय किया है जो इस परेशानी के समय दोहराना चाहते हो?'
"ऐसी कोई बात नहीं है परंतु मैं आपको ऐसे संकट में न जाने दूंगा।'
'कैसा संकट?'
'रंजन ने चारों ओर अपने आदमी छोड़े हुए हैं, ताकि आप चंद्रपुर से बाहर न जा सकें।'
'अच्छा, यह बात है। वह मुझसे भी अधिक चतुर हो गया है। अभी-अभी कुसुम के हाथ संदेश भेजा है कि यदि मैंने किसी प्रकार का छल करने का प्रयत्न किया तो वह मेरे खेतों को जलाकर राख कर देगा। वह मूर्ख क्या जाने कि मैं तो घाट का एक पत्थर हूं। मेरे साथ सिर फोड़कर उसे कुछ न मिलेगा।'
'परंत मालिक,दश्मनों का क्या भरोसा? भगवान न करे, ऐसा कांड हो गया तो फिर क्या होगा? सारी घास सूख चुकी है और कटने ही वाली है।'
'तुम इसकी चिंता मत करो। घर फूंककर तमाशा देखने में जो आनंद आता है वह लुटाने में नहीं। मैं जीवन में कभी हारा नहीं, न ही इस समय झुडूंगा, समझे?' । राज बाबू यह कहकर जोर-जोर से हंसने लगे।
मुनीमजी और कुसुम उनके मुख की ओर देख रहे थे। अब वह लाल चेहरा कुछ-कुछ काला पड़ता जा रहा था। कितनी भयानक हंसी थी वह!
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