RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
सवेरा हुआ तो घर वालों ने उन्हें बरामदे की सीढ़ियों पर बैठा पाया। परंतु किसी में इतना साहस न हुआ कि उनसे कारण पूछ ले। बहुत देर तक वे इसी प्रकार स्थिर बैठे रहे। जब सूरज बहुत चढ़ आया तो कुसुम उनके पास आकर बोली, 'नहाने के लिए पानी तैयार है।'
'कुसुम तुम मेरा कितना ध्यान रखती हो।' वह कुसुम का हाथ थामकर बोले और मुस्कराते हुए देखने लगे।
'और आप हैं कि अपना बिल्कुल ध्यान ही नहीं रखते।'
'वह कैसे?'
"देखिए न, आप सारी रात सोए ही नहीं।'
'नींद! वह तो हमसे रूठ गई है। हमने लाख चाहा कि लौटकर आ जाए परंतु वह एक है कि अपनी हठ पर अड़ी हुई है, कुसुम तुम्हारी मां भी इस नींद की भांति थी जो रूठकर चली गई और वापस न लौटी। वह मुझे पत्थर समझती थी और ऐसा समझते-समझते अपने आप ही पत्थर बन बैठी।'
'परंतु, इसमें उनका क्या दोष है, भला भगवान के घर....।'
'कुसुम, ऐसा न कहो मेरे लिए वह अब भी जीवित है।'
'भले मनुष्य सदा ही जीवित रहते हैं, बाबा!'
राज बाबू चुप ही रहे और उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। 'चलिए पानी तैयार है और जलपान को देर हो रही है। आपने कल से कुछ भी तो नहीं खाया।'
'तुमने भी तो....।'
'भला मैं कैसे खा लेती?'
'अच्छा चलो, आज तुम जलपान के लिए सब सामान अपने हाथ से तैयार करो।' यह कहकर राज बाबू स्नानागार की ओर बढ़े, 'देखना कोई भी कमी न रह जाए। कल से भूखा हूं।'
कुसुम बाबा की आज ऐसी अनोखे ढंग से बातें सुनकर हैरान हो गई। आज वह प्रसन्न क्यों हैं। उन्हें तो चिंतित होना चाहिए था। आज संध्या को तो उन्हें एक भयंकर विपत्ति का सामना करना है। उसकी समझ में कुछ न आया। वह रसोई में गई और काम में लग गई। जमींदार साहब थोड़ी देर बाद स्नान करके आ गए और कुसुम ने जलपान की सामग्री मेज पर सजा दी। कुसुम ने अनेक प्रकार के भोजन बना लिए थे। उसके मुख की ओर देखते हुए बोले, 'तो क्या तुम मेरा साथ न दोगी?'
'क्यों नहीं!' और वह साथ ही कुर्सी पर बैठ गई। दोनों ने जलपान आरंभ कर दिया। जमींदार साहब ने आज जी-भरकर खाया। उन्होंने देखा कि कुसुम कुछ नहीं खा रही थी, केवल बार-बार उनकी ओर देख लेती थी।
'क्यों बेटा, खाना क्यों बंद कर दिया?'
'बस खा चुकी बाबा! मुझे इतनी ही भूख थी।'
'तुम आजकल की छोकरियां तो चिड़ियों का-सा पेट रखती हो, दो कौर खाए कि पेट भर गया।' कुसुम हंसने लगी। वह आज बाबा को एक नए ही रंग में देख रही थी।
कुछ देर में बाबा फिर बोले, 'जी भरकर खा लो। शायद आज इस हवेली में हमारा यह अंतिम जलपान है।'
'बाबा, यह आप....।'
'ठीक कह रहा हूं। शाम के सात बजे। उसके बाद पता नहीं क्या हो।'
'क्यों, आपने क्या सोचा है?'
वह कुर्सी से उठे और हरिया उनके हाथ धुलाने लगा। बाबा मौन थे, मानों कुसुम का प्रश्न उन्होंने सुना ही नहीं। कुसुम ने देखा अब उनके चेहरे का रंग फिर बदल रहा है। चेहरे की
आभा कालेपन में बदलती जा रही है। वह सहम गई और उसने अपना प्रश्न दोहराना उचित न समझा। जब वह हाथ धो चुके तो उन्होंने हरिया से मुनीमजी को बुलाने के लिए कहा और कुसुम को अंदर आने का इशारा करके अंदर कमरे में चले गए।
कुसुम भी दबे पांव बाबा के पीछे-पीछे कमरे में गई।
'तो तुम क्या पूछ रही थीं?'
'कुछ नहीं....।' कुसुम ने घबराते हुए उत्तर दिया।
'मुझे अपने पुत्र का स्वागत किस प्रकार करना है?' वह अलमारी की ओर बढ़े और उसमें से अपनी बंदूक निकाली।
कुसुम यह देखकर भयभीत हो उठी। वह बंदूक संभालते हुए बोले, 'डर गई, घबराओ नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।'
"परंतु आप....।'
इतने में मुनीमजी भी आ पहुंचे।
आज हम इस हवेली को सदा के लिए छोड़ रहे हैं।
'क्यों क्या बात है?' मुनीमजी ने आते ही पूछा।
'मैंने सारी जायदाद रंजन के नाम करने का निश्चय किया है।'
'यह आप क्या कर रहे हैं?'
'जो कुछ कर रहा हूं ठीक ही कर रहा हूं। इससे पहले कि वह इसे लूटकर ले जाए, मैंने यही उचित समझा कि सब कुछ उसको सौंप दूं।'
'आप एक बार फिर सोच-विचार....।'
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