RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
घड़ी की सुइयां बराबर बढ़ती जा रही थीं। कुसुम के हृदय की धड़कन भी तेज होती जाती थी और साथ ही जमींदार साहब के चेहरे का रंग भी समय के साथ-साथ भयानक आकार धारण करता जा रहा था। पांच बजने में थोड़ी देर थी कि मुनीमजी आ गए। जमींदार साहब का सामान तैयार था। घोड़ा गाड़ी भी तैयार थी। जमींदार साहब ने पूछा, 'सब काम ठीक हो गया।'
'जी आपकी आज्ञा का पूरा-पूरा पालन हुआ है। रुपया बांट दिया गया है और खेतों में सबको छुट्टी दे दी गई है।'
'किसी को यह तो नहीं पता लगा कि यह सब क्यों हुआ?'
'पूछा तो सबने परंतु टाल दिया गया।'
'बहुत अच्छा। जल्दी से सामान गाड़ी में लदवा दो।'
मुनीमजी, हरिया और कोचवान ने जल्दी से सामान उठाया और नीचे ले जाने लगे। जब सब सामान नीचे चला गया तो जमींदार साहब बोले, 'मुनीमजी, आप कुसुम को साथ लेकर नीचे चलिए, मैं अभी थोड़ी देर मैं आता हूं।'
'मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बताइए।'
'वह काम तुम्हारे वश का नहीं।'
जब मुनीमजी कुसुम को साथ लेकर नीचे गए तो राज बाबू ने हवेली के चारों ओर अपनी दृष्टि दौड़ाई। हवेली की प्रत्येक दीवार उदास खड़ी थी। दूर कोने में उनकी दृष्टि हरिया पर जाकर रुक गई। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। राज बाबू यह देखकर पास गए और बोले, 'क्यों हरिया, ये आंसू कैसे?'
'मालिक' और वह फूट-फूटकर रो पड़ा।
'हरिया, मुझे क्षमा कर दो। मैं तो तुम्हें भूल ही गया था।'
'मालिक, मेरा क्या होगा?'
'तुम हमसे अलग नहीं हो सकते। जाओ, नाचे गाड़ी खड़ी है
'हरिया के मुख पर प्रसन्नता की एक लहर दौड़ गई।' 'सच मालिक!'
राज बाबू यह देखकर मुस्करा दिए और हरिया दौड़ा हुआ पहाड़ी के नीचे उतर गाड़ी की ओर लपक गया।
राज बाबू ने घड़ी की ओर देखा। सात बजने में पच्चीस मिनट बाकी थे। वह जोर से चिल्लाए, 'राहू', 'साहू' और उस आवाज के साथ ही दो व्यक्ति, लंबे-चौड़े सीना ताने ड्योढ़ी से निकल उनकी ओर बढ़ने लगे। उनके पास आकर वे रुक गए और बोले, 'जी सरकार! उनकी गर्दन झुक गई थीं।'
'सब तैयारी है ना?'
'जी सरकार!'
तो राहू तुम खेतों की ओर जाओ और साहू तुम हवेली में। यह कहकर राज बाबू ड्योढ़ी से बाहर निकल नीचे सड़क की ओर जाने लगे। वे मुड़-मुड़कर हवेली की ओर देख लेते। नीचे नदी बह रही थी। उन्हें ऐसा लगता था मानों मुंडेर पर डॉली खड़ी उन्हें विदा दे रही हो। अब वह संसार छोड़कर जा रहे थे परंतु फिर भी उन्हें कोई दुःख न था और न ही उनके मुख पर किसी प्रकार की उदासी थी।
जमींदार राज गाड़ी के पास पहुंचे। कुसुम, हरिया उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। सब गाड़ी में बैठ गए। जमींदार साहब मुनीमजी को मौन देखकर बोले, 'मुनीमजी, कोई ठिकाना बन गया तो शीघ्र ही बुला लूंगा। आप चिंता न करे। कठोर हृदय अवश्य हूं परंतु कृतघ्न नहीं।'
'मालिक आपके एहसान....।'
'जाने दो इन बातों को, मेरे पास समय बहुत कम है। देखो रंजन को सब कागजात दे देना, ठीक सात बजे।'
'बहुत अच्छा ।'
"तो चलूं हजूर!' कोचवान ने घोड़े की बाग हाथ में लेते हुए कहा।
'नहीं, अभी थोड़ी देर बाकी है।' इतने ही में जोर का धमाका हुआ और हवेली का मुंडेर उड़ता हुआ दिखाई दिया। धीरे-धीरे हवेली की मजबूत दीवारें गिरती हुई दिखाई देने लगीं। धमाका इतने जोर का हुआ कि सबका हृदय दहल गया और सब चुपचाप एक दूसरे का मुंह देखने लगे। यह क्या हो गया? कुछ मिनटों में ही घास के खेतों में आग की लपटें उठने लगीं। इसके साथ ही राज बाबू ने कोचवान को चलने की आज्ञा दे दी और गाड़ी नदी के किनारे-किनारे दौड़ती दिखाई दी। थोड़ी ही देर में आग की लपटें आकाश से बातें करने लगी।
मुनीमजी ने देखा कि एक तेज चाल वाला घोड़ा उनकी ओर बढ़ा चला आ रहा है। उन्होंने समझा वह रंजन है। वह डर गए और इधर-उधर छिपने के लिए जगह टटोलने लगे, परंतु इससे पहले ही सवार उनके बिल्कुल पास पहुंच गया। यह देखकर उन्हें धैर्य हुआ कि वह शंकर था। आते ही मुनीमजी से उसने पूछा, 'राज बाबू कहां हैं?'
'घोड़ा गाड़ी में कुसुम को साथ लेकर शहर की ओर गए हैं।'
"कितनी देर हुई है?'
'बस थोड़ी ही देर हुई है। क्यों क्या बात है?'
"उनके प्राण संकट में हैं।' यह कहते हुए शंकर ने घोड़े को एड़ लगाई और नदी किनारे-किनारे हो लिया।
राज बाब की गाडी थोडी ही दर गई थी कि उन्हें पता लगा कि उस सड़क पर रंजन के आदमियों ने घेरा डाला हुआ है। उन्होंने गाड़ी को वापस मोड़ लिया और खेतों की बीच वाली सड़क पर आ गए।
घोड़े तेजी से बढ़े जा रहे थे। खेतों की आग से सारा चंद्रपुर लाल दिखाई दे रहा था। हवेली की ड्योढ़ी आग के प्रकाश में साफ दिखाई दे रही थी। ड्योढ़ी के अतिरिक्त हवेली के कई द्वार मिट्टी के ढेर हो चुके थे। शंकर के अस्तबल के घोडे व्याकल होकर आग और उसकी गर्मी से दर भाग रहे थे। वृक्षों पर पक्षी, जो अभी-अभी अपने घोंसलों में लौटे थे, अपने पर फैलाकर दूर उड़ जाने की चिंता में थे।
चारों ओर कोहराम-सा मचा हुआ था। अचानक कुछ घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई दी और थोड़ी देर में राज बाबू की गाड़ी घुड़सवारों ने घेर ली। राज बाबू ने अपनी बंदूक संभाली। कुसुम डरकर उनसे लिपट गई। उन्होंने उसे तसल्ली देते हुए अलग किया और गाड़ी से बाहर निकले। सामने रंजन घोड़े से उतरकर खड़ा था। सूरज छिपने वाला था परंतु जलते खेतों के प्रकाश में ऐसा जान पड़ता था मानों अभी-अभी दिन निकला हो। रंजन के दहकते हुए चेहरे पर राज ने एक नजर डाली और गरजकर बोले, 'कहो और क्या चाहिए जो इतना कष्ट किया?'
'शायद आपकी घड़ी सात बजा चुकी।'
'अभी तो बीस मिनट बाकी हैं।' उन्होंने घड़ी पर दृष्टि डालते हुए कहा।
'तो यहां से इतना जल्दी भागने की क्या आवश्यकता थी?'
"मेरा काम समाप्त हो गया था।'
'परंतु मेरा काम तो अभी शुरु भी नहीं हुआ।'
"उसमें अभी बीस मिनट बाकी हैं।'
'तब तक आप यहां से बहुत दूर निकल चुके होते।'
'तुम्हें इससे क्या? मैं तुम्हारा गुलाम नहीं। सात बजे हवेली तक पहुंच जाओ, मैंने कागजात दस्तखत करके मुनीमजी को सौंप दिए हैं।'
'क्या?'
'अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम कर दी है, जाओ मौज करो।'
|