RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
'मौज इन घास के अंगारों पर या हवेली के ढेरों पर?' 'परंतु आप यह भूलते हैं कि मैं एक डाकू हूं और इन बंजर जमीनों से मुझे कुछ लाभ नहीं। न मैं यहां बैठकर इन्हें फिर से बसा सकता हूं कि कब फसल पके और मेरी झोली में रुपयों की वर्षा हो।'
'मैं इसका जिम्मेदार नहीं, जो कुछ था वह मैंने दे दिया।'
'आप घबराएं नहीं। मैं आपके पास कोई शिकायत लेकर नहीं आया कि आपने खेतों को क्यों आग की भेंट कर दिया या हवेली को उड़ाकर मिट्टी के ढेर क्यों लगा दिए।'
'तो फिर कौन-सी आवश्यकता तुम्हें यहां खींच लाई?'
'आपका रुपया और गहने जो आप साथ ले जा रहे हैं।'
'इन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। तुम इन्हें छू भी नहीं सकते।'
'भला आप ही सोचिए कि यह उजाड़ बन पैसों के बिना किस तरह आबाद होगा? लगी आग तो बुझानी आखिर मुझे ही है।'
'यह असंभव है।'
'बिना रुपये दिए आप यहां से नहीं जा सकते।'
'इसके लिए तुम्हें अपनी मौत से खेलना होगा।'
"मुझे स्वीकार है। और यह कहकर ही रंजन गाड़ी की ओर बढ़ने लगा। जमींदार साहब ने अपनी बंदूक संभालकर उसकी नली रंजन के सामने कर दी। उनके हाथ कांप रहे थे। रंजन के एक साथी ने धीरे-से उससे कहा, 'पिस्तौल निकाल लो।
'इसकी आवश्यकता नहीं।' उसने उत्तर दिया और धीरे-धीरे अपने बाबा की ओर आने लगा।
राज बाबू हैरान थे कि क्या करें। अपने बेटे को गोली का निशाना बना दें? परंतु वह तो स्वयं ही बिना किसी हथियार के मेरी ओर बढ़ रहा है। उसे विश्वास है कि मैं उसे कभी गोली नहीं मार सकता और यदि मैं गोली न चलाऊं तो वह सब-कुछ लूट लेगा। उसकी तो मुझे कोई चिंता नहीं परंतु मेरे वचन और मर्यादा का प्रश्न है। मेरे जीते-जी वह कैसे गाड़ी को छू सकता है। वचन देकर मैं कैसे हार जाऊं?
एक ओर प्रतिज्ञा और दूसरी ओर कर्त्तव्य। रंजन अब बिल्कुल पास पहुंच चुका था। राज बाबू हैरान थे कि क्या करें। उसी समय ऐसा जान पड़ा कोई व्यक्ति उनके बिल्कुल समीप आकर रुका हो। उन्होंने कनखियों से देखा, यह शंकर था।
राज बाबू गरजकर बोले,'रंजन अब भी संभल जाओ। यह न समझना कि एक बाप अपने बेटे के खून से हाथ नहीं रंग सकता।' रंजन उत्तर में केवल मुस्करा दिया।
'एक बार भली प्रकार फिर सोच लो यह न भूलो कि मैंने अपनी हठ के कारण अपना संसार फूंककर रख दिया है।'
'और आप भी याद रखें कि मैं भी आप जैसे हठी पिता का पुत्र हूं।'
'तो लो तैयार हो जाओ।' उन्होंने बंदूक की नली रंजन के सीने के सामने कर दी और बंदूक के घोड़े पर उंगली रख दी। अभी तक उनका इरादा गोली चलाने का न था। वह इसी आशा में थे कि शायद रंजन टल जाए परंतु.... अचानक गोली चली और कोई व्यक्ति लपककर राज बाबू के शरीर से लिपट गया। गोली की आवाज सुनकर कुसुम की चीख निकल गई और वह गाड़ी से बाहर निकल आई। वह व्यक्ति शंकर था और गोली चलाने वाला रंजन का एक साथी। गोली चलने से पहले ही शंकर राज बाबू के शरीर से लिपट गया और गोली उसकी पीठ में आकर लगी। बंदूक राज बाबू के हाथ से छूटकर भूमि पर आ पड़ी। राज घुटनों के बल नीचे झुका और शंकर को सहारा देते हुए बोला, 'यह तुमने क्या किया?'
'यदि एक मित्र का जीवन बचाने में मुझ-सा अयोग्य व्यक्ति काम आ सका है तो इसे अपना सौभाग्य समझता हूं।'
'एक जीवन बचाने में दूसरा चला गया तो मिला ही क्या?'
'तुम्हारी अभी आवश्यकता है बच्चों को, डॉली को और चंद्रपुर को। मैं तो एक परदेशी हूं, इस संसार में अकेला, मेरा....।' यह कहते-कहते शंकर की आवाज रुकने लगी।
और उसका चेहरा पीला पड़ने लगा। राज ने शंकर की पीठ पर कपड़ा बांधा। 'कोचवान जरा सहारा दो और इन्हें गाड़ी में ले चलो।'
'इसकी.... अब....कोई.... आवश्यकता नहीं।' शंकर ने राज का हाथ पकड़ते हुए कहा। रंजन चुपचाप यह सब देख रहा था। उसने अपने आदमियों को जाने का इशारा किया और शंकर से आकर बोला, 'मैं बहुत लज्जित हूं। यह सब....।'
'इसमें लज्जा की क्या बात है। तुम्हारे हितैषी ने तुम्हें बचाने के लिए गोली चला दी और तुम्हारे बाबा के हितैषी ने उसे बचा लिया।'
'आप मनुष्य नहीं देवता हैं।'
'तो इस देवता की एक अंतिम बात मान लो!' शंकर बहुत धीमे स्वर में बोला। उसकी सांस रुक रही थी।
'कहिए?'
'आपस की सब शिकायतें दूर करके बाबा के गले लग जाओ। यही मेरी अंतिम अभिलाषा है।' शंकर ने रुक-रुककर कहा।
रंजन एक क्षण मौन खड़ा रहा फिर शंकर की ओर उसने देखा और दूसरे ही क्षण वह बाबा के निकट आ पहुंचा। रंजन ने गर्दन नीची कर ली और धीरे-से बोला, 'मुझे क्षमा कर दें।'
राज बाबू ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर शंकर की ओर देखने लगे। शंकर के चेहरे पर हल्की -सी प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी और वह मुस्कराने का प्रयत्न कर रहा था। फिर रुकते-रुकते बोला 'राज, मैंने डॉली को तार दिया था। परंतु वह समय पर न आ सकी। हो सकता है कि ट्रेन न पकड़ सकी हो, मेरी जेब में उसके पत्र हैं जो शायद तुम्हारी गलतफहमी दूर कर सकें। मेरी बहन को निर्दोष....।'
'बस-बस शंकर, मुझे अधिक लज्जित न करो। मेरी गलतफहमी ने मुझे कहीं का न रखा।' ।
'तो क्या हमारी मां अभी जीवित है?' रंजन और कुसुम ने एक साथ पूछा। राज मौन रहा। उसने गर्दन झुका ली।
उसे मौन देखकर शंकर ने कहा, 'बच्चों, तुम्हारी मां अभी जीवित है और जल्दी ही तुम्हें मिल जाएगी। आओ.... मेरे पास आओ... मेरे।' शंकर यह कहते-कहते रुक गया। उसकी सांस फूलने लगी और एक हिचकी के साथ उसकी सांस रुक गई।
राज ने नब्ज टटोली। नब्ज खो चुकी थी। शंकर की आंखें पथरा गई थी, यह देखते ही कुसुम की चीख निकल गई। रंजन ने लपककर गाड़ी में से कुसुम की चादर निकाल ली और शंकर पर डाल दी।
राज बाबू ने उसका सिर नीचे टेक दिया। दोनों बच्चे सहमे से उनकी बांहों में आ गए। उन्होंने आज पहली बार बाबा की आंखों में आंसू देखे। आज राज बाबू वर्षों बाद रोए। उसी समय सबने देखा कि एक मोटर सड़क पर आकर रुकी। सबने उस ओर देखा। दरवाजा खुला और डॉली मुनीमजी को साथ लेकर उतरी। वह शीघ्रता से उनके पास पहुंची। राज ने अपना मुंह दूसरी ओर फेरा और कहा, 'डॉली देर में पहुंची, शंकर तो....।'
डॉली ने जल्दी से शंकर के मुख पर से चादर हटाई और उसके मुंह से लंबी चीख निकल गई। फिर उसके मृत शरीर से लिपटकर रोने लगी। कुछ देर रोने के बाद उठी और राज से बोली, 'यदि आप आज्ञा दें तो मैं इनकी लाश अपने साथ ले जाऊं?'
'डॉली, इसकी आवश्यकता नहीं। यह भार उठाने के लिए मैं अभी जीवित हूं। देखो, तुम्हारे बच्चे तुम्हें किस तरह देख रहे हैं। जाओ और उन्हें मिलो।'
डॉली ने घूमकर देखा। रंजन और कुसुम उसको देख रहे थे। दोनों भागकर डॉली की बांहों में आ गए और वह उन्हें गले लगाकर चूमने लगी। सब मौन एक-दूसरे की ओर देख रहे थे और सबकी आंखों में आंसू बह रहे थे।
तीनों ने मुड़कर राज बाबू की ओर देखा। वह शंकर का शव अपने हाथों में लिए हवेली की ओर जा रहे थे। रंजन और कुसुम ने मां को सहारा दिया और ये तीनों भी उनके पीछे चल दिए।
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