RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
यह देखकर जय तुरंत डॉली के सामने आ गया। उसने अपनी जेब से रिवाल्वर निकाल ली और घृणा से बोला- 'बस कीजिए पापा! यदि आपने डॉली को हाथ भी लगाया तो ठीक न होगा।'
'क्या करेगा तू? खून करेगा हमारा?'
'पापा! यदि आपने अपनी नीचता न छोड़ी तो मैं ऐसा भी कर सकता हूं।'
'नहीं!' एकाएक डॉली चिल्लाई और रोते-रोते जय से बोली 'ऐसा मत कीजिए जय साहब! आप यहां से चले जाइए। छोड़ दीजिए मुझे मेरे हाल पर। लुट जाने दीजिए मुझे। आपका मेरे लिए अपने पिता से लड़ना ठीक नहीं।'
'नहीं डॉली! मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊंगा। यदि मेरे पापा इस आयु में और मेरे सामने शैतानियत का नंगा खेल सकते हैं तो मुझे स्वयं को उनका बेटा कहते भी लाज आएगी और वैसे भी यह लड़ाई बाप-बेटे के बीच नहीं-यह लड़ाई तो इंसानियत और शैतानियत के बीच है। तुम पीछे हट जाओ।'
'हरामजादे!' जमींदार साहब ने गुस्से से दांत पीसकर कहा- 'तू जानता है हम कितने जिद्दी हैं।'
'यदि आप जिद्दी हैं तो मैं भी कम नहीं पापा! क्योंकि मैं भी आप ही के वंश में पैदा हुआ हूं। यदि आप डॉली को लूटने पर ही तुले हैं तो फिर मेरा निश्चय भी वही है-आपने डॉली को हाथ भी लगाया तो मैं आपको गोली मार दूंगा।'
'ठीक है तो फिर चला गोली।'
इतना कहकर जमींदार साहब फिर डॉली की ओर बढ़े। डॉली घबराकर पीछे हट गई और ठीक उसी समय कमरा फायरों की आवाजों से गूंज उठा। इन आवाजों के साथ ही जमींदार साहब के कंठ से हृदय विदारक चीख निकली और वह लहराकर गिर पड़े।
जय ने डॉली की इस बात पर कोई ध्यान न दिया। उसने एक नजर फर्श पर पड़े तड़पते । अपने पिता पर डाली और तेजी से बाहर चला गया।
घबराहट के कारण जय के ललाट पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं। बरामदे में आकर उसने डॉली से कहा- 'डॉली! नूर नगर यहां से अधिक दूर नहीं। वहां मेरा एक मित्र रहता है-अरुण । भारती। तुम उसके पास चली जाओ। वह तुम्हारा पूरा-पूरा ख्याल रखेगा। यह लो उसका पता और किराया।' इतना कहकर जय ने एक छोटा-सा लिफाफा डॉली की ओर बढ़ा दिया।
डॉली सिसकती रही।
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