RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
रात्रि के आठ बजे थे। हरिया अभी न लौटा था। डॉली बिलकुल अकेली थी और इतने बड़े मकान में उसे यों लग रहा था मानो वह किसी भूत बंगले में आ फंसी हो। पिछले एक घंटे से आंगन में खड़ी वह यही सोच रही थी कि उसे कहां जाना चाहिए। सोचते-सोचते उसे अपनी दो-तीन सहेलियों का ध्यान आया जो किसी समय उसके साथ पढ़ती थीं। ऐसे समय में उनसे सहायता मांगने में कोई बुराई भी न थी। यह सोचकर डॉली ने स्टूल पर रखा अखबार उठाया और आगे बढ़कर द्वार का बोल्ट गिरा दिया।
तभी वह चौंकी। दरवाजे के सामने कई व्यक्तियों की मिली-जुली आवाजें सुनाई पड़ीं। उनमें एक आवाज हरिया की भी थी। वह किसी से कह रहा था- 'बहुत तेज लड़की है चौधरी साहब।'
'अरे तेज न होती तो क्या एक साथ दो-दो खून करा देती? रामगढ़ में दीना को मरवाया और यहां आकर जमींदार साहब को खत्म करा दिया।'
'न जाने अब किसका नंबर है।'
'किसी का भी नहीं।' किसी ने भारी आवाज में कहा- 'वह हरामजादी एक बार मेरे हाथों में आ जाए फिर देखना। ऐसी नकेल डालूंगा कि रामगढ़ से जिंदगी भर बाहर न जाएगी।'
'लेकिन मेरा इनाम?'
'मिलेगा हरिया! तू दरवाजा तो खोल।'
डॉली ने यह सब सुना तो पत्ते की भांति कांप गई। उसे समझते देर न लगी कि गांव के लोग उसे लेने आए थे। चौधरी को वह जानती थी, दीना के पड़ोस में ही रहता था। वह यह भी जान गई थी कि हरिया उन्हें इनाम के लालच में लेकर आया था।
तभी भड़ाक से द्वार खुला और डॉली फुर्ती से एक ओर हटकर पौधों के पीछे छुप गई। इस ओर अंधकार भी था। उसी समय हरिया के साथ तीन व्यक्तियों ने अंदर प्रवेश किया और वे सब बरामदे की ओर बढ़ गए। यह देखकर डॉली ने संतोष की सांस ली। फिर जब वे लोग सामने वाले कमरे में चले गए तो वह पौधों के पीछे से निकली और शीघ्रता से बाहर आ गई। उसे विश्वास था कि वे लोग जब तक उसे पूरे । मकान में न खोज लेंगे-बाहर न आएंगे। वह उससे पहले ही मुख्य सड़क तक पहुंच जाना चाहती थी। सड़क तक पहुंचने में अधिक समय न लगा। वह चलती रही और अंततः एक घंटे बाद अपनी एक अंतरंग सहेली शिवानी के मकान के सामने पहुंच गई। कोठीनुमा मकान था और संयोगवश मुख्य द्वार भी खुला था। डॉली ने अंदर पहुंचकर घंटी का बटन दबाया। कुछ क्षणोंपरांत द्वार खुला। छरहरे जिस्म की एक लड़की सामने आई। यह शिवानी थी।
शिवानी ने उसे देखते ही पहचान लिया और उल्लास से बोली- 'डॉली तू!'
'हा-मैं ही हूं शिवानी!'
'तो अंदर आ न-बाहर क्यों खड़ी है?' इतना कहकर शिवानी ने डॉली का हाथ पकड़ा और उसे कमरे में ले आई।
डॉली उदास थी-आंखों में आंसुओं की बूंदें झिलमिला रही थीं। शिवानी से उसके मन की पीड़ा छुपी न रही। वह बोली- 'डॉली, तेरी पीड़ा तो मैं समझती हूं। अंकल-आंटी चले गए-तू बेसहारा हो गई। शहर भी छूट गया और तू रामगढ़ चली गई, किन्तु यह तो बता कि इन दो वर्षों में तू एक बार भी आई क्यों नहीं? क्या तुझे कभी मेरी याद नहीं आई?'
'याद तो आती थी शिवानी! बहुत आती थी। कभी एकांत में क्षण मिलते तो घंटों रोती। बहुत याद आती थी तेरी, अपनी सभी सहेलियों की।'
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