RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
शिवानी ने उसे अपनी ओर खींच लिया। स्नेह से बोली- 'पगली! तूने यह कैसे सोच लिया कि मैं तेरे लिए कुछ न करूंगी? और फिर अपना तो वही होता है न-जो विपत्ति में काम आता है।'
'शिवा!'
'चिंता मत कर। मत सोच कि संसार में तेरा कोई अपना नहीं-तेरा कोई घर नहीं। यह घर तेरा है-इसे अपना समझ और यहीं रह।'
'शिवा-मेरी सखी!'
'न-न-रोते नहीं। रोने से दु:ख अवश्य हल्का होता है किन्तु दुर्भाग्य को हंसने का अवसर मिलता है।' इतना कहकर शिवानी ने उसके आंसू पोंछ दिए और बोली- 'चल, अब स्नान कर ले। लेकिन देख तुझे मेरी सौगंध जो कुछ बीत चुका है उसे बिलकुल भूल जाना और इस घर को पराया मत समझना। तू यहीं रहेगी तो मुझे बहुत खुशी होगी।'
डॉली ने फिर कुछ न कहा और उठ गई।
पीड़ाएं सहने के लिए होती हैं-सही जाती हैं। डॉली ने भी अपनी पीड़ाओं को सहा और अपने अतीत को भी भुला दिया। दो दिन बीतते-बीतते वह शिवानी एवं राज से इस प्रकार घुल-मिल गई मानो वह बचपन से ही उन लोगों के साथ रह रही हो।
डॉली ने शिवानी से जय के विषय में कुछ न बताया था। यह भी न कहा था कि वह जय को बचाने के लिए एक विकलांग व्यक्ति से विवाह करना चाहती थी। सच तो यह था कि डॉली ने अब विवाह का विचार ही मस्तिष्क से निकाल दिया था। उसने सोचा था वह अपने लिए कोई छोटी-मोटी नौकरी खोज लेगी। इससे दो लाभ होंगे। एक तो यह कि वह शिवानी एवं राज पर बोझ न बनेगी और दूसरा यह कि वह जय के पक्ष में मुकदमा भी लड़ सकेगी।
संध्या के समय राज जब बाहर से लौटा तो डॉली ने उसके एवं शिवानी के सामने अपने मन की बात रख दी।
राज बोला- 'डॉलीजी! क्या इसका अर्थ यह नहीं कि आप अभी तक भी इस घर को अपना नहीं समझ सकी हैं।'
'यह किसने कहा आपसे?'
'आपकी इस बात ने कि आप नौकरी करना चाहती हैं। मेरा ख्याल है-आप नौकरी इसलिए करना चाहती हैं क्योंकि आप हम लोगों पर बोझ बनना नहीं चाहतीं।'
'नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है।'
'तो फिर क्या बात है?' शिवानी ने पूछा।
'बात केवल यह है कि मैं अपने अतीत से दूर जाना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि बीता हुआ कल मुझे एक पल के लिए भी झिंझोड़ने का प्रयास न करे और यह तभी होगा जब मैं कुछ समय के लिए घर से बाहर रहूंगी। प्रत्येक समय यहां रही तो अतीत रह-रहकर चोट करेगा। पुरानी यादें दु:ख देंगी ओर वो दु:ख ऐसा होगा जो मुझे चैन से न जीने देगा। बस इसलिए मैं नौकरी करना चाहती हूं।'
शिवानी बोली- 'फिर तो कोई बुराई भी नहीं। क्यों भैया?'
'हां।' राज को भी कहना पड़ा 'बुराई तो कुछ नहीं किन्तु एक शर्त है।'
'वह क्या?' डॉली ने पूछा।
'वो यह कि आप अपने वेतन का पैसा इस घर के लिए खर्च न करेंगी।'
'शर्त तो विचित्र-सी है आपकी किन्तु जब आप कह रहे हैं तो मान लेती हूं।'
'गुड! अब यह बताइए-नौकरी कहां करेंगी?'
'इसी शहर में।'
'अरे बाबा! मैं पूछ रहा था कि कौन-सी कंपनी में?'
'यह तो खोजने से ही पता चलेगा।'
'चलिए-यह जिम्मेदारी हम पर रही।'
'भैया!' शिवानी बोली- 'क्या आपके ऑफिस में कोई जगह नहीं?'
'अरे भई! अपना ऑफिस है ही क्या? दो मेजें और दो कुर्सियां। चार्टेड । एकाउंटेंट के पास और क्या होता है लेकिन मेरी इतनी जान-पहचान है कि काम हो जाएगा।'
डॉली ने फिर कुछ न कहा और उठ गई।
शिवानी ने पूछा- 'तू कहां चली?'
खाने की तैयारी करूंगी।'
'फिर तो मैं गई काम से।'
'क्यों?'
'क्योंकि बच्ची! जब दिन भर का खाना, नाश्ता तू बनाएगी तो मैं क्या करूंगी?'
'इसमें बुराई क्या है?' डॉली ने पूछा।
शिवानी ने राज से कहा- 'भैया! अब आप ही बताइए न कि इसमें क्या बुराई है?'
राज ने डॉली को कनखियों से देखा और बोला- 'देखो भई! बुराई तो मैं नहीं बता सकता। हां, फैसला जरूर कर सकता हूं।'
'ठीक है कीजिए फैसला।'
'तो हमारा फैसला यह है कि सुबह का खाना और नाश्ता तो डॉलीजी बनाएंगी।'
'और शाम का खाना?'
'यह तुम बनाओगी और हां, यह फैसला इसी समय से लागू होगा!'
'जज साहब का फैसला सर-आंखों पर। अब मैं चली खाना बनाने।' । शिवानी ने धीरे से हंसकर कहा और उठ गई।
एकाएक राज को कुछ याद आया और वह अपनी जेब से एक लिफाफा निकालकर शिवानी से बोला- 'एक मिनट शिवा! तेरे विज्ञापन का उत्तर आ गया है।'
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