RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
सैंट्रल जेल के मुलाकात वाले कक्ष में वह सिर झुकाए खड़ा था। समय ने कितनी जल्दी हुलिया बदल दिया था उसका। चेहरे पर मैल की परतें, बढ़ी हुई शेव और आंखों में निराशा के साये।
डॉली उसे देखकर स्वयं को न रोक सकी और सिसक पडी।
जय उसे रोते देखकर बोला 'रोना तो मुझे चाहिए डॉली! घर-परिवार और साथ ही उसे भी छोड़कर जिसे मैंने पागलपन की सीमा तक चाहा यहां चला आया, कैद हो गया इन ऊंची-ऊंची दीवारों में। समझौता कर लिया अपने मुकदर से किन्तु आंखों में आंसू न आए। जानती हो क्यों? क्योंकि मन में एक विश्वास था। विश्वास था कि कोई मेरा अपना है। यकीन था कि कोई मुझे भी चाहता है और डॉली! इंसान को किसी का प्यार मिले-किसी अपने की। सहानुभूति मिले-कोई उसके दुखों पर दो आंसू बहाए-उसके लिए खुशी की इससे बड़ी कोई और बात नहीं होती।'
'जय!' डॉली रोते-रोते सलाखों पर मस्तक रगड़ने लगी।
'डॉली!' जय फिर बोला- 'तुम्हें देखा तो मैंने संसार देख लिया। तुम यहां आईं तो संसार-भर की खुशियां मुझे मिल गईं। अब मुझे कोई परवाह नहीं। कोई गम नहीं कि मेरा क्या होगा। भले ही मुझे फांसी की सजा मिले, किन्तु मैं हमेशा यही चाहूंगा कि तुम्हें कुछ न हो। तुम्हारा जीवन खुशियों से महकता रहे। तुम्हारे पांव में कभी कांटा भी न चुभे।'
'जय! मेरे जीवन की खुशी तो तुम हो और यदि तुम ही इस चारदीवारी में कैद रहे तो मेरी खुशी का क्या महत्व? तुम सोचते हो जी पाऊंगी मैं तुम्हें खोकर-मुस्कुरा सकूँगी क्या?'
'डॉली-डॉली!'
'जय!' डॉली अपने आंसू पी गई और जय के हाथ पर अपना हाथ रखकर बोली- 'मैंने केवल प्यार की कहानियां पढ़ी थीं—प्यार को कभी देखा न था। उस दिन तुम मिले-तुमने अपने प्यार का इजहार किया तो एकाएक ही विश्वास ही न कर सकी किन्तु जब तुमसे दूर हुई तो तुम्हारे शब्द याद आए। तुम्हें जाना-तुम्हारे प्रेम को जाना और तभी मुझे अनुभव हुआ कि मैंने भी तुम्हें चाहा था। बहुत रोई मैं तुम्हारे आने के बाद। बहुत याद किया तुम्हें। जी में आया पंछी बनूं और उड़कर तुम्हारे पास चली आऊं। किन्तु यह कैसे संभव होता? इसलिए कल्पना के पंख लगाए और तुम्हारे आसपास ही उड़ती रही, सो नहीं पाई कभी। रात में तुम्हारी यादें बेचैन करतीं। सोचती, कितने महान निकले तुम। मेरे लिए पिता से विद्रोह किया विद्रोह न करते तो उनका खून क्यों होता? और दूसरी महानता यह कि मुझे परेशानी से बचाने के लिए उस अपराध को स्वीकार किया जो तुमने किया ही न था। खुशी-खुशी गिरफ्तार हुए और जेल चले आए। यह भी न सोचा कि आगे क्या होगा और मैं-मैं तुम्हारे लिए कुछ भी न कर सकी-कुछ भी तो नहीं कर सकी तुम्हारे लिए।' कहते-कहते डॉली फिर सिसक पड़ी।
जय बोला- 'पगली! इतना सब तो किया तुमने मेरे लिए। मुझ अजनबी को चाहा। मुझसे दर्द का रिश्ता जोड़ा। मेरे लिए रात-रातभर नींद न आई। मेरे लिए हजार-हजार आंसू बहाए। यूं ही कोई रोता है किसी के लिए? क्या यूं ही किसी का दर्द अपना बन जाता है? नहीं डॉली! इन सबके लिए तो बहुत त्याग करना पड़ता है। बहुत कुछ खोना पड़ता है रोने के लिए भी। कोई अंदर छुपे दर्द के समुद्र से कुछ बूंद आंसू निकालकर तो देखे-दिल में बहुत पीड़ा होता है और वो पीड़ा तुमने सही डॉली! तुमने सही मेरे लिए। मैं-मैं तो तुम्हारा वह उपकार मरकर भी न भूल पाऊंगा।'
'ऐसा न कहो जय! ऐसा न कहो। मैंने तो केवल आंसू ही बहाए हैं और तुमने-तुमने तो मेरे लिए अपने आपको भी मिटा दिया। लुटा दिया अपने आपको।' इतना कहकर डॉली ने अपने आंसू पोंछ लिए। एकाएक उसे कुछ याद आया और वह बोली- 'सुनो! यहां आते समय मैं । कचहरी गई थी। वहां एक कपूर साहब हैं। मैंने उनसे तुम्हारे विषय में सलाह ली थी। बोले-यदि किसी प्रकार यह पता चल जाए कि उस समय वहां हरिया एवं जमींदार साहब के अतिरिक्त भी कोई तीसरा व्यक्ति था और यह सिद्ध हो जाए कि गोली जय की रिवाल्वर से नहीं चली। थी-तो फिर तुम्हारा जय सजा से बच सकता है।'
'डॉली! यह तो मैं भी मानता हूं कि उस समय कोई तीसरा व्यक्ति वहां था। जिसने मेरे तथा पापा के झगड़े का लाभ उठाया और किसी शत्रुतावश पापा का खून कर दिया। जहां तक मैं समझता हूं केवल हरिया को उस व्यक्ति की जानकारी हो सकती है किन्तु हरिया कुछ बताएगा नहीं। इसलिए तुम्हारा किसी से । पूछताछ करना और वकीलों से मिलना व्यर्थ है। दूसरी बात यह है कि तुम अकेली हो और मेरा कोई संबंधी तुम्हारी मदद नहीं करेगा। कारण यह है कि वे लोग पापा की संपत्ति पर पहले ही गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम्हारी कोशिशों से कोई लाभ न होगा। अच्छा होगा कि तुम इस विषय में सोचना छोड़ दो और मुझे अपने भाग्य के अनुसार जीने दो।'
'कैसे छोड़ दूं तुम्हें? वो हृदय कहां से लाऊं जो तुम्हारी ओर से मुख मोड़ ले। तुमने मेरे लिए बर्बादी को गले लगाया और मैं तुम्हें भूल जाऊं? नहीं जय! यह संभव नहीं और हां, एक बात और जान लो। मैं अपने आपको खाक में मिला दूंगी। मिटा दूंगी अपनी हस्ती को-किन्तु अपने जीते जी तुम्हें कुछ न होने दूंगी। कभी निराश मत होना जय! मत सोचना कि तुम यह मुकदमा हार जाओगे। मत सोचना कि तुम्हें फांसी हो जाएगी। मत सोचना कि इस संसार में तुम्हारा कोई अपना नहीं। सोचना तो सिर्फ यह सोचना कि डॉली मेरी अपनी है-सोचना तो सिर्फ यह सोचना कि डॉली का प्यार जेल की चारदीवारी में कैद है और उसे डॉली के लिए मुक्त होना ही होना है।'
'द-डॉली!'
'मैं फिर आऊंगी जय! आती रहूंगी। चिंता मत करना। तुम्हें मेरी सौगंध कभी आंसू मत बहाना। नहीं रोओगे न?' डॉली ने भावपूर्ण स्वर में कहा और अपना हाथ जय के हाथ में दे दिया।
जय ने उसका हाथ चूम लिया। किन्तु न जाने क्यों-ऐसा करते समय उसकी आंखों से दो बूंद आंसू निकले और डॉली की हथेली पर गिर पड़े।
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