RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
फिर वही विवशता, फिर वही उलझनें और फिर दुर्भाग्य की वही परछाइयां। कई दिन बीत गए। डॉली ने अनेक दफ्तरों के चक्कर लगाए-किन्तु नौकरी उसे न मिली। इन उलझनों के कारण उसके व्यवहार में भी काफी परिवर्तन आ गया था। अब वह बाहर से लौटकर रसोई का कुछ काम न देखती और अपने कमरे में चली जाती।
राज तो उससे कुछ कहने का साहस ही न जुटा पाता। शिवानी कुछ कहती तो वह तबीयत खराब होने का बहाना बना देती।
अंततः एक शाम जब डॉली बाहर से लौटी तो शिवानी स्वयं को रोक न सकी और उससे बोली- 'डॉली! पिछले कई दिनों से देख रही हूं। न तो तू ठीक से खाना खाती है और न ही सो पाती है। यहां तक कि तू मुझसे और भैया से भी बोलना पसंद नहीं करती। क्या मैं जान सकती हूं कि ऐसा क्यों है?' 'अतीत की पीड़ाएं हैं-जो बेचैन कर डालती हैं?'
'अतीत तो बीत चुका है।'
'किन्तु उसकी स्मृतियां तो अब भी दु:ख देती है।'
'दु:ख तो बांटे भी जाते हैं।'
'सभी दु:ख एक जैसे नहीं होते।'
'किन्तु तेरे इन दुखों ने मुझे और भैया को कितना दुखी कर रखा है-यह तू नहीं जानती। एक बात मानेगी?'
'वह क्या?' डॉली ने पूछा। खिड़की के सामने खड़ी वह आकाश पर फैली लालिमा को देख रही थी।
'अपना यह हाथ किसी के हाथ में दे दे।' शिवानी ने कहा।
'इससे क्या होगा?'
'तेरी पीड़ाएं मिट जाएंगी। वर्तमान की खुशियों को गले लगाएगी तो अतीत भी याद न रहेगा।'
'कौन थामेगा मेरा हाथ?'
शिवानी को उसके इस वाक्य से प्रसन्नता हुई। वह बोली- 'पगली! तू इतनी सुंदर है कि तुझे तो कोई भी अपना सकता है। तू एक बार मुंह से हां तो कर। फिर देख तुझे किस प्रकार सजा-संवारकर दुल्हन बनाती हूं।'
डॉली ने दीर्घ निःश्वास ली और बोली- 'हां, अब तो यह सब करना ही पड़ेगा शिवा! बनना ही पड़ेगा दुल्हन। इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग भी तो नहीं।। जिंदगी ने नाटक ही इतना भयानक खेला है कि सब कुछ सहना ही पड़ेगा।' डॉली के इन शब्दों में अथाह पीड़ा थी।
शिवानी उसके मन की पीड़ा न जान सकी और उसे अपनी ओर खींचकर बोली- 'तो फिर एक बात मान।'
'वह क्या?'
'इस घर से सदा के लिए अपनेपन का नाता ले।' 'क्या मतलब?'
'लक्ष्मी बन जा इस घर की।'
'तेरा मतलब है।'
'हां, मेरा संकेत भैया की ओर है। बहुत चाहते हैं तुझे। कई बार कह चुके हैं मुझसे।'
'तू क्या चाहती है?'
'मैं भी यही चाहती हूं। सच कहती हूं तेरे रहने से यह घर स्वर्ग बन जाएगा। हमेशा खुशियों के फूल खिलेंगे इस आंगन में।'
'क्या-क्या वास्तव में ऐसा हो जाएगा शिवा?'
'पगली! कैसी बातें करती है।' इतना कहकर शिवानी ने डॉली के गाल पर स्नेह से हल्की-सी चपत लगाई और इसके उपरांत वह खुशी-खुशी कमरे से बाहर चली गई।
किन्तु डॉली के चेहरे पर कोई खुशी न थी। शिवानी के जाते ही उसकी आंखों में आंसुओं की बूंदें चमकी और फिर यह आंसू उसके कपोलों पर उतर आए। काश! शिवानी ने उसके यह आंसू देखे होते। काश! किसी ने उसकी पीड़ा और विवशता को समझा होता।
दूसरी ओर शिवानी तुरंत राज के कमरे में पहुंची और उसकी व्हील चेयर थामकर बोली 'भैया! आज बुधवार ही है न?'
'हूं क्यों?' राज ने अनमने ढंग से पूछा। व्हील चेयर पर बैठा वह किसी पुस्तक के पृष्ठ उलट रहा था।
'और।' शिवानी फिर बोली- 'सुना है बुधवार का दिन आपके लिए बहुत शुभ होता है।'
'नहीं शिवा! अब ऐसा नहीं। अब तो मुझे अपना हर दिन अशुभ नजर आता है।'
'भैया! आप तो बहुत जल्दी निराश हो जाते हैं। आप यह क्यों नहीं सोचते कि प्रत्येक रात के पश्चात सुबह का उजाला अवश्य आता है और मैं यह कहने आई हूं कि आपके जीवन में उजाला आ चुका है।'
'अच्छा! वह क्यों कर?' राज ने पुस्तक बंद कर दी और पूछा।
'ऊंडं यों न बताऊंगी।'
'और?'
'पहले मेरा इनाम।'
'वाह! यह खूब रही। बात से पहले इनाम।'
'मर्जी आपकी। नहीं देना! तो मत दीजिए। लेकिन मैंने फैसला किया है कि मैं इनाम से पहले कोई बात न बताऊंगी।'
'चलो उधार मान लो।'
'प्रॉमिस?'
'एकदम पक्का ।'
'तो सुनिए!' शिवानी ने राज के कान में कहा- 'डॉली को मैंने भाभी बना लिया है। भाभी-अर्थात् अपने आंगन की गृहलक्ष्मी।'
'क्या!' राज चौक पड़ा। होंठों पर खुशियों की मुस्कुराहट फैल गई।
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