RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'हां भैया! डॉली ने मेरी बात मान ली है। बस अब तो आप जल्दी से विवाह की तैयारी कीजिए।'
राज कुछ न कह सका और शिवानी हंसते हुए बाहर चली गई।
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फिर वही मंजर, फिर वही तड़प और फिर वही पीड़ाएं। डॉली मूर्तिमान-सी सलाखों के पीछे खड़े जय को देख रही थी। कुछ ही समय में वह वर्षों का बीमार नजर आता था। आंखें अंदर को धंस गई थीं और उसके कामदेव जैसे चेहरे पर मैल की इतनी परतें जम चुकी थीं कि पहचाना न जाता था। जय को देखते-देखते डॉली का हृदय भर आया। मन के किसी कोने में धुंधली-सी खुशी भी थी और दर्द का सागर भी। अपनी बेबसी से लड़ते-लड़ते वह इतनी थक चुकी थी कि उसने राज से विवाह करने का निश्चय कर लिया था। उसे खुशी थी कि वह राज की पत्नी बनकर बड़ी सरलता से जय का मुकदमा लड़ सकेगी, किन्तु दु:ख यह था कि उसने जय के संबंध में जो सपने संजोये थे वे सब टूटकर बिखर गए थे। उसके अंदर तो इतना भी साहस न था कि वह अपना यह निर्णय जय को बता पाती। जानती थी-सहन न कर पाएगा वह। शायद उसके हृदय में जीने की एक भी लालसा शेष न रहेगी। लेकिन जय को बचाने के लिए अपनी भावनाओं का परित्याग तो उसे करना ही था।
जय के सामने खड़ी डॉली अब भी यही सब सोच रही थी। वह समझ न पा रही थी कि जो कुछ होने वाला है-उस पर ठहाका लगाए अथवा आंसू बहाए।
तभी जय ने अपनी आवाज में उसे झिंझोड़ दिया। वह कह रहा था- 'डॉली! तुम्हारी यह खामोशी और उदासी बता रही है कि मेरी तरह तुमने भी परिस्थितियों से हार मान ली है। तुमने भी समझौता कर लिया है अपने दुर्भाग्य से।'
'न–नहीं जय!' डॉली बोली- 'मैंने हार नहीं मानी और हारने का तो प्रश्न ही नहीं है। मुझे आज भी यह आशा है कि तुम बरी हो जाओगे। मैंने इस संबंध में कई वकीलों से बात की है। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया है कि तुम्हें कुछ न होगा।'
'मुझे अपनी नहीं तुम्हारी चिंता है। मैं तो खैर जेल में हूं-इसलिए स्वास्थ्य गिर गया है किन्तु तुम तो खुली हवा में हो–फिर तुम्हारा स्वास्थ्य क्यों गिर गया? क्या इसका अर्थ यह नहीं कि परिस्थितियों ने तुम्हें थका दिया है?'
'नहीं जय!'
'खैर!' जय ने सलाखें थाम लीं-डॉली की आंखों में देखते हुए बोला- 'अब मेरी एक बात मान लो।'
'वह क्या?'
‘अपने लिए किसी साथी का चुनाव कर लो।'
'व-जय!' डॉली की आवाज कांप गई। आवाज के साथ-साथ उसका हृदय भी कांपकर रह गया। सोचा, कहीं ऐसा तो नहीं कि जय को उसके निर्णय का पता चल गया हो।
जय फिर बोला- 'डॉली! यह सब मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जीवन के रास्ते बहुत लंबे होते हैं। अकेले चलोगी तो थककर गिर जाओगी और फिर यह संसार भी तो ऐसा है कि किसी को अकेले नहीं जीने देता। पग-पग पर गिद्ध बैठे हैं यहां।'
'जय प्लीज!' डॉली तड़पकर बोली- 'भगवान के लिए मुझसे यह सब न कहो-न कहा जय! तुम नहीं जानते कि यह सुनकर मुझ पर क्या बीतती है। कितनी तड़प उठती है हृदय में।'
'तुम-तुम समझती नहीं हो डॉली!'
'मैं समझना भी नहीं चाहती जय! कुछ और कहो।'
'हां, एक बात कहनी है।'
'वह क्या?'
'उस दिन तुम कह रही थीं जब पापा का खून हुआ तो वहां कोई तीसरा और था।'
डॉली ने चौंककर पूछा- 'तुम जानते हो उसे?'
'जानता तो नहीं केवल संदेह है। रामगढ़ के चौधरी को तो तुम जानती होगी। दरअसल पापा और चौधरी के बीच पिछले कई वर्षों से मुकदमेबाजी चल रही थी। झगड़ा किसी जमीन पर था और आज से एक वर्ष पहले हरिया भी चौधरी के पास ही काम करता था।'
डॉली यह सुनकर चौंक गई। उसे याद आया, उस दिन हरिया ही चौधरी को लेकर आया था।
जय कहता रहा- 'मुझे संदेह है कि कहीं। हरिया चौधरी से न मिल गया हो और पापा का खून चौधरी ने ही न किया हो, लेकिन मैं जानता हूं कि इस संबंध में तुमसे कुछ न हो सकेगा। चौधरी वैसे भी ठीक आदमी नहीं।' डॉली ने कुछ न कहा।
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जय फिर बोला- 'तुम तो उसके पश्चात रामगढ़ गई न होगी?'
'अब मेरा उस नरक से संबंध नहीं।'
'दीना के परिवार में और भी कोई था?'
'नहीं।'
'उसके पास संपत्ति तो होगी?'
'यह मैं नहीं जानती।'
तभी मुलाकात का समय समाप्त हो गया। यह जानकर डॉली के हृदय को आघात-सा लगा और वह जय का हाथ अपने हाथों में लेकर । बोली- 'जय! क्या मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती?'
'मेरे साथ?'
'हां, जेल में।'
'पगली!' दर्द भरी मुस्कुराहट के साथ जय ने कहा- 'भला ऐसा भी कभी हुआ है? और वैसे भी जेल तो अपराधियों के लिए होती है और जिसने अपने जीवन में कोई अपराध ही न किया हो...?'
'अपराध तो मैंने भी किया है जय!'
'वह क्या?'
'चाहा है तुम्हें तुमसे प्यार किया है।'
जय छटपटाकर रह गया और तभी संतरी ने उसे पीछे हटा दिया। डॉली की आंखें सावन-भादो बन गईं।
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