RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
फिर कई दिन बीत गए। राज तो सुबह ही अपने ऑफिस चला जाता था किन्तु क्योंकि शिवानी घर ही रहती थी-अंतत: डॉली को घर से बाहर जाने का अवसर न मिला।
किन्तु एक सप्ताह बाद वह अवसर उसे मिल गया। शिवानी को अपनी सहेली की बर्थडे पार्टी में जाना था। पार्टी दिन में थी। अत: वह सुबह ही तैयार हुई और चली गई। डॉली को उसके जाने से प्रसन्नता हुई। अब उसके पास कई घंटों का समय था। इतने समय में वह कपूर साहब एवं जय दोनों से मिल सकती थी। राज को भी पांच बजे के बाद ही लौटना था। अतः वह शीघ्रता से तैयार हुई और एक ऑटोरिक्शा में बैठकर कोर्ट आ गई। कोर्ट आकर वह कपूर साहब से मिली और उसने पर्स से निकालकर दो हजार के नोट उनके सामने रख दिए।
'यह?' कपूर साहब ने उससे पूछा।
'आपकी फीस।'
'अच्छा-अच्छा।'
'अंकल!'
'अब आप बिलकुल चिंता न करें। मैं कल ही जय से मिलूंगा और पूरी फाइल देख लूंगा।'
'अंकल! मेरा मतलब था कि वह बरी तो हो जाएंगे?'
'बिलकुल हो जाएंगे डॉली जी! आप चिंता न करें।'
'थॅंक अंकल!' डॉली ने कहा और इसके उपरांत वह जब कपूर साहब के ऑफिस से बाहर निकली तो उसे यों अनुभव हुआ मानो उसके हृदय से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो।'
अब उसे जय से मिलना था। लगभग एक घंटे पश्चात वह जेल पहुंची।
मुलाकात वाले कक्ष में खड़े जय की आंखों में आज भी निराशा के भाव थे। डॉली ने उससे पूछा- 'कैसे हो जय?'
'अभी तो जिंदा हूं डॉली!' जय ने निराशा से कहा किन्तु एकाएक उसकी नजर डॉली की मांग में भरे सिंदूर और ललाट पर चमकती बिंदी पर पड़ी और वह चौंककर बोला- 'लेकिन-लेकिन यह सब...।'
'यह सब क्या?'
'मेरा मतलब है तुम्हारी मांग में सिंदूर। माथे पर बिंदिया और हाथों में कंगन?'
'ओह!' डॉली कांप-सी गई। इस ओर तो उसका ध्यान ही न गया था। उसने तो सोचा भी न था कि उसकी मांग के सूिंदर को देखकर जय के मन में शंकाओं का तूफान चीख सकता है किन्तु अगले ही क्षण उसे एक बात सूझ गई और वह बोली- 'यह सब तुम्हारा ही है जय! तुम्हारे ही है।'
'मेरे लिए?'
'हां, तुम्हारे लिए ही। यह बिंदिया, यह सिंदूर और कंगन।'
'लेकिन तुमने तो मुझसे...?'
'विवाह कर लिया है जय!' डॉली ने फिर झूठ का सहारा लिया और कहा- 'तुम्हें मन-ही-मन अपना देवता माना और विवाह कर लिया। सिंदूर भर लिया तुम्हारे नाम का। माथे पर बिंदिया सजाई और तुम्हारी प्रीत के कंगन भी पहन लिए।
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