RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'द-डॉली!' जय की आवाज कांप गई।
डॉली कहती रही- 'कुंआरी रहकर जीना कठिन हो गया था मेरे लिए। जहां काम करती हूं-वहां के लोग भी विचित्र-सी नजरों से देखते और जब संसार की कामुक नजरें मुझसे सहन न हुईं तो मैंने अपनी मांग में सिंदूर भरा-मस्तक पर बिंदी लगाई और स्वयं को शादीशुदा घोषित कर दिया।'
यह सुनकर जय पीड़ा से चीख उठा 'यह-यह तुमने क्या किया डॉली! तुम जानती हो मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं। मैं इस चारदीवारी से बाहर भी आ सकूँगा–यह भी कोई निश्चित नहीं। फिर तुमने मेरे नाम का सिंदूर क्यों सजा लिया डॉली? मेरे नाम के कंगन क्यों पहन लिए?'
'य-ये कंगन तो नकली हैं जय!'
'सिंदूर तो असली है। यह बिंदिया तो असली है डॉली!'
'जय!' डॉली इससे अधिक न कह सकी और सिसक उठी। जय ने मजबूरी से सलाखें थाम लीं। तड़पकर बोला- 'डॉली! तुम्हारे मन की दुर्बलता मैं समझता हूं लेकिन फिर भी जो कुछ तुमने किया है यह मेरे हृदय के लिए बहुत बड़ा बोझ है। बहुत बड़ा उपकार है तुम्हारा मुझ पर और यह एक ऐसा कर्ज है जिसे मैं इस जन्म में कदापि न उतार पाऊंगा। शायद जीना कठिन हो जाएगा मेरे लिए। मरना भी चाहा तो मर भी न पाऊंगा। जीवन एवं मृत्यु के बीच पिसकर रह जाएंगी मेरी समस्त भावनाएं।'
'जय!' डॉली ने आंसू पोंछ लिए और बातों का विषय बदलकर बोली- 'मैंने तुम्हारा मुकदमा कपूर साहब को सौंप दिया है। फीस के कुछ रुपए भी उन्हें दे दिए हैं। उनका कहना है कि तुम साफ छूट जाओगे-तुम्हें कुछ न होगा।'
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'डॉली-डॉली! तुम वास्तव में पागल हो। यों लगता है, मानो तुम्हें मेरे अतिरिक्त अन्य किसी भी बात का ध्यान नहीं। न जाने फीस के रुपए किस प्रकार जुटाए होंगे।'
'अगले सप्ताह मुकदमे की तारीख है।' डॉली ने जय की बात पर ध्यान न देकर अपनी बात कही- 'और मैं सिर्फ यह कहना चाहती हूं कि निराश मत होना। हार मत मानना जिंदगी से।'
'अब तो जीतना ही पड़ेगा डॉली! अपने लिए न सही किन्तु तुम्हारे लिए तो ईश्वर से कहना ही पड़ेगा कि वह मुझे जिंदा रखे। क्या करूं-तुमने रिश्ता ही ऐसा जोड़ा है जो मरने के पश्चात ही टूट सकता है।'
डॉली ने कुछ न कहा।
उसी समय मुलाकात का समय समाप्त हो गया और जय पीछे हट गया। डॉली ने देखा-उसकी आंखों में आंसुओं की मोटी-मोटी बूंदें झिलमिला रही थीं।
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