RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"हां।" कहते हुए मैंने लाइटर अपने जिस्म पर मौजूद काली अचकन की जेब में रखने के बहाने सौ रुपये के नोटों की एक गड्डी नीचे गिरा दी—इस गड्डी को देखते ही कंचन की आंखें हीरों के मानिन्द चमकने लगीं। जबकि वास्तविकता ये थी कि बीच में सफाई के साथ कटे सफेद कागज थे। दोनों तरफ पांच-पांच नोट असली बल्कि उन्हें भी असली नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये उस सीरीज के नोट थे जिसे हमारी सरकार जाली घोषित कर चुकी थी।
मैंने गड्डी उठाकर वापस जेब में रखी।
"अगर मैं हीरों से जड़ा हार चाहने लगूं?" लहजा अब भी मुझे आजमाने वाला ही था।
"कैसी बात करती हो, कंचन, तुम्हारे सामने भला हार की क्या कीमत है?"
उसने मुझे कातर दृष्टि से देखते हुए कहा—"तो दिलाओ।"
"फिर कभी।"
"क.....क्यों?" उसके इरादों पर पानी फिर गया।
"आज शाम मेरी बीवी मायके चली गयी है और सेफ की चाबी उसी के पास रहती है—मेरी जेब में इस वक्त केवल बीस हजार रुपये पड़े हैं, इनमें वह चीज आ नहीं सकती, कंचन, जो तुम्हारे गले में फबे।"
"क.....क्या—बीवी मायके गई है?" वह उछल पड़ी—"तब तो आज की रात मैं आपको कहीं न जाने दूंगी।"
"आज मैं रात-भर रहने के लिए ही आया हूं।"
"हाऊ स्वीट—आप कितने अच्छे हैं, असलम बाबू।" कहकर वह लिपट ही नहीं गई, बल्कि बेसाख्ता मुझे चूमने लगी—शिकार फंसाने में वह इतनी माहिर थी कि 'हार' वाले विषय को इस तरह चेंज कर गई जैसे उस विषय में कोई दिलचस्पी न हो। उस वक्त उसने केवल यही 'शो' किया जैसे मेरे रात के वहां रहने के निर्णय ने उसे पागल कर दिया हो—जबकि मैं अच्छी तरह जानता था कि बीस हजार के नैकलेस पर उसकी लार टपकी जा रही है और रात के किसी वक्त वह यह कहकर कि प्यार की निशानी का महत्व कीमत से नहीं होता, मुझे बीस हजार के आस-पास का नैकलेस दिलाने के लिए तैयार करने वाली थी।
उस बेवकूफ को नहीं मालूम था कि मैं क्या गुल खिलाने वाला हूं?
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मेरठ सर्राफा।
कबाड़ी बाजार के नजदीक ही है।
दोपहर के बारह बजे थे।
काले बुर्के में कंचन मेरे साथ थी—बुर्का इसलिए, क्योंकि उसकी नजर में मैं मेरठ का सम्भ्रांत नागरिक था और किसी द्वारा हमें साथ देखा जाना मुझे पसन्द नहीं था—अपनी आंखों में बीस हजार के आस-पास के नैकलेस का सपना लिए वह मेरे साथ जिस दुकान पर चढ़ी, उसके बाहर बोर्ड़ लगा था—
खैरातीलाल—सुरेशचन्द्र।
काउण्टर पर बैठे मोटे व्यक्ति ने दुकान में घुसते ही हमें हाथों-हाथ लिया—यह प्रभाव मेरे उसी जवान पहनावे का था, जिसके जरिए एक महीना पहले शान्ति और कंचन को लपेट में लिया था।
काली अचकन, चूड़ीदार सफेद पाजामा, चमकदार गोटे वाली जूतियां, घड़ी और अंगूठियों का जिक्र तो मैं कर ही चुका हूं—बढ़ी हुई दाढ़ी—मूंछें और हेयर स्टाइल से भी मैं किसी रईस मुसलमान का शौकीन लड़का नजर आता था।
"हमारी बीवी को नैकलेस दिखाओ।" मैंने नवाबी अंदाज में कहा।
"जरूर, हुजूर, किस रेंज में?"
"कोई रेंज नहीं।" मैंने अर्थपूर्ण ढंग से जाली के भीतर चमक रहीं कंचन की आंखों में झांकते हुए कहा—"बस चीज ऐसी नफीस हो कि बेगम की खूबसूरती में चार चांद लग जाएं।"
"ऐसी ही चीज लीजिए, हुजूर।" कहने के बाद मोटे ने अपने चार या पांच नौकरों में से किसी को आवाज लगाई।
दस मिनट बाद काउण्टर पर नैकलेस के ढेर सारे डिब्बे खुले पड़े थे। कंचन ठीक किसी नवाब की बीवी के समान उनका तुलनात्मक विवेचन कर रही थी और उसका शौहर होने के नाते मैं तरह-तरह की सलाह दे रहा था।
अचकन की ऊपर वाली जेब से पांच का नोट निकालकर दुकान के नौकर से पान लाने के लिए कहा। वह पान लेने चला गया—जब पान लिए लौटा तो मैं और कंचन उस नैकलेस पर विचार-विमर्श कर रहे थे, जिसकी कीमत मोटे ने साढ़े बीस हजार बताई थी—पान के बाद जब नौकर बचे हुए पैसे वापिस देने लगा तो पान मुंह में रखते हुए मैंने बुरा-सा मुंह बनाया, बोला— "तुम हमारी बेइज्जती कर रहे हो किबला?"
"ज.....जी?"
"बचे हुए पैसे जेब में डालना हमारे खानदान की फितरत नहीं।" कहने के बाद मैं कंचन के साथ बातों में इस कदर मशगूल हो गया कि चाहकर भी बेचारा नौकर बचे हुए पैसे मेरी तरफ न बढ़ा सका।
साढ़े बीस हजार के नैकलेस पर कंचन सहमत हो गई।\
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