RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
हालांकि ऊपर से मैं पूरी तरह सामान्य और खुश नजर आ रहा था, परन्तु हकीकत में दिल हथौड़े की शक्ल अख्तियार कर जोर-जोर से पसलियों पर चोट करने लगा और ऐसा शायद इसलिए था, क्योंकि अब मेरी योजना के वे अंतिम और संवेदनशील क्षण आ पहुंचे थे, जब गड़बड़ हो सकती थी। बोला— "मैं धर्मकांटे पर नैकलेस का वजन कराना चाहूंगा।"
"जरूर कराइए हुजूर, तसल्ली जरूरी है।" कहने के बाद मोटे ने नैकलेस अपने एक नौकर को सौंपा और बोला—"बुन्दू, हुजूर के साथ धर्मकांटे पर जाकर इसका वजन करा ला।"
"जी मालिक।"
"हम अभी आते हैं बेगम तब तक चाहो तो तुम कुछ और देख सकती हो।" जाली में ढंकी कंचन की आंखों से मैंने कहा ही था कि मोटा बोला, "आप इनकी फिक्र न करें, मैं बेगम साहिबा को बोर नहीं होने दूंगा, ऐसी शानदार चीजें दिखाऊंगा कि इनकी तबीयत बाग-बाग हो जाएगी—अबे ओ छग्गन!"
"जी, मालिक।" दुकान के भीतरी हिस्से से आवाज आई।
"बेगम साहिबा के लिए एक ठंडी बोतल ला।"
बस।
इसके बाद मैं बुन्दू नामक नौकर के साथ दुकान से उतर गया। वह मुझे सराय के पश्चिमी किनारे पर, पहली मंजिल पर स्थित धर्मकांटे पर ले गया।
कुछ अन्य लोग भी धर्मकांटे पर वजन करा रहे थे।
अपना नम्बर आते ही मैंने जेब से बीस का नोट निकाला, बुन्दू को दिया और सामने ही, सड़क के पार चमक रही पनवाड़ी की दुकान की तरफ इशारा करता हुआ बोला—"जब तक वजन हो, तब तक तुम सामने वाली दुकान से चांसलर का एक पैकेट पकड़ लो, बुन्दू।"
ऐसा कहने के बाद सोचने के लिए बुन्दू को एक क्षण भी दिए बगैर मैंने नैकलेस उसके हाथ से लेकर 'कांटे' पर बैठे व्यक्ति को पकड़ा दिया।
हालांकि मैंने हालात ऐसे बना दिए थे कि बुन्दू चाहकर भी कुछ सोच न सके और उस वक्त यदि बुन्दू सोच भी पाया होगा तो सिर्फ यह कि बीस हजार के ग्राहक को नाराज करने के सिलसिले में सेठ उस पर बिगड़ भी सकता है—बीस के नोट में से बचने वाले पैसे भी उसे साफ चमक रहे होंगे—भले ही चाहे जो रहा हो, मगर हकीकत ये है कि बुन्दू सिगरेट का पैकेट लेने चला गया।
अब मेरी उद्विग्नता बढ़ती चली गई।
कांटे पर बैठा व्यक्ति नैकलेस को तौल रहा था, तौलने के बाद उसने पर्ची बनाई—जिस वक्त मैं पर्ची और नैकलेस के अपने हाथ में पहुंचने का इंतजार कर रहा था, उस वक्त बुन्दू को सड़क पार करते पनवाड़ी की दुकान की तरफ बढ़ते देखा।
"सवा दो रुपये।" कहते हुए कांटे पर बैठे व्यक्ति ने पर्ची और नैकलेस मुझे पकड़ा दिए, मैंने जबरदस्त फुर्ती के साथ सवा दो रुपये दिए। उधर, चांसलर का पैकेट बुन्दू के हाथ में पहुंच चुका था। उसे वापस देने के लिए पनवाड़ी गल्ले से नोट निकाल रहा था कि मैं जीने की तरफ लपका—कांटे पर बैठा व्यक्ति मुझसे अगले व्यक्ति को 'डील' करने में इस कदर व्यस्त था कि मेरी तरफ जरा भी ध्यान नहीं दिया।
मैं नीचे पहुंचा।
पर्ची और नैकलेस जेब में डाल चुका था।
इस तरफ पीठ किए बुन्दू वापस किए गए नोट गिन रहा था कि मैं गन से निकली गोली की तरह बाईं तरफ की छः दुकानों के सामने से गुजर संकरी गली में घुस गया।
अब मुझे कुछ नहीं देखना था।
जानता था कि मुश्किल से एक मिनट बाद बुन्दू को धर्मकांटे पर पहुंच जाना है और उसके वहां पहुंचते ही सारे सर्राफे में हंगामा शुरू होने जा रहा था, उसकी कल्पना मैं बखूबी कर सकता था—मेरे पास सिर्फ एक मिनट था और इस एक ही मिनट में मैं मण्डी के चौराहे की पूर्वी सड़क पर एक फाटक से बाहर निकला।
लपककर एक रिक्शे में बैठते हुए मैंने कहा—''ओडियन सिनेमा।''
कम-से-कम आज नसीब मेरा साथ दे रहा था, क्योंकि रिक्शा पुलर जवान लड़का था और उसने रिक्शा इतनी तेज चलाया, जैसे मुझसे मिला हुआ हो—'सेठों की गली' से गुजारकर उसने मुझे मुश्किल से पांच मिनट में 'ओडियन' पर पहुंचा दिया।
मैंने दो रूपए दिए।
ओडियन में उस वक्त 'नटवर लाल' लगी हुई थी, परन्तु उसके पोस्टर पर एक नजर डालता हुआ मैं सीधा 'लैट्रिन' में घुस गया।
दरवाजा अंदर से बन्द करके सबसे पहले चूड़ीदार पाजामा उतारा, उसके बाद अचकन—योजना के मुताबिक अचकन के अंदर मैंने बिना तह किए जीन्स की एक पैंट रख रखी थी, उसे चूड़ीदार पाजामें की जगह पहना।
अचकन के अन्दर पहले ही से एक ऐसी 'टीशर्ट' पहनी हुई थी, जिसके अगले हिस्से में 'ब्रूस ली' अपने प्रसिद्ध एक्शन में खड़ा नजर आ रहा था और पीठ पर 'मुहम्मद अली'—पैंट की जेब से बुरी तरह घिसी हुई 'हवाई चप्पलें' निकालकर गोटेदार जूतियों की जगह पहनीं।
अब मैं ठीक वही लग रहा था जो वास्तव में हूं।
पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित एक भारतीय किन्तु कंगला युवक।
सर्राफे में हो रहे सम्भावित हंगामें और उस हंगामें के बीच फंसी कंचन की दयनीय अवस्था की कल्पना करते हुए अचकन की जेब से नैकलेस और सारे खर्चे के बाद बचे तिरेसठ रुपये पैंतालीस पैसे 'जीन्स' की एक जेब में डाले। कंघे से बालों को दुरुस्त करके अपनी वास्तविक हेयर स्टाइल में लाया—सारी अंगूठियां और घड़ी अचकन की जेब में नोटों की फर्जी गड्डियों के साथ रखीं और फिर चूड़ीदार पाजामें के साथ मैंने उन्हें 'लैट्रिन सीट' के अंदर ठूंस दिया।
जब बाहर निकला तो पूरी तरह बदला हुआ था।
मुश्किल से एक घंटे बाद नवाब वाला हुलिया सारे मेरठ में चर्चा का विषय बनने जा रहा था और उस हुलिये की अब मेरे पास सिर्फ
एक ही चीज थी—दाढ़ी-मूंछ।
मैंने ओडियन से 'हापुड़ अड्डे' के लिए रिक्शा पकड़ा।
करीब बीस मिनट बाद हापुड़ अड्डे पर स्थित एक नाई की कुर्सी पर बैठा दाढ़ी-मूंछ से निजात पा रहा था—चेहरा 'क्लीन शेव्ड' होने के बाद जब मैंने खुद को ध्यान से शीशे में देखा तो यकीन न आया कि सर्राफे से नैकलेस लेकर फरार होने वाला नवाब मैं ही हूं—आश्वस्त होने के बाद दुकान से निकला।
अब मेरा इरादा सर्राफे के नजारे देखने का था।
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