FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
06-13-2020, 12:57 PM,
#7
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"ख.....खामोश!" मैं इतनी जोर से दहाड़ उठा कि अदालत-कक्ष झनझनाकर रह गया—दरअसल 'सुरेश' का नाम सुनते ही मेरा तन-बदन सुलग उठा। दिमाग में इतनी गर्मी भर गई कि नसें फटने लगीं। मैं हलक फाड़कर चिल्ला उठा—"चले जाओ यहां से, मुझे कोई वकील नहीं चाहिए—उस हरामजादे के पैसे से मुझे अपनी जमानत नहीं करनी है, आई से गेट आउट।"

सुरेश का नाम सुनते ही मैं पागल-सा हो उठा था और उस कमीने द्वारा भेजा गया वकील इतना धाकड़ था कि मेरी मानसिक स्थिति ठीक न होने की बिना पर जमानत करा ली।

मैं आजाद हो गया।

जी चाहा कि वकील की गर्दन मरोड़ डालूं, मगर यह सोचकर रह गया कि इस बेचारे का भला क्या दोष है—उसे तो पैसा मिला है, मेरी जमानत के लिए भरपूर पैसा—और पैसा देने वाला सुरेश।
मेरा भाई।
उसे भाई कहते भी मुझे शर्म आती है, ग्लानि होती है।
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कर्जदारों के आतंक से घिरा मैं खारी बावली पहुंचा—मैं एक मकान के बाहरी हिस्से में बनी छोटी-सी बैठक में रहता हूं। बैठक का दरवाजा गली में ही था और अभी मैं उस पर लटका ताला खोल रहा था कि जाने कहां से मकान मालिक टपक पड़ा, बोला— "कमरा बाद में खोलना मिक्की, पहले मेरा किराया दो।"

मैंने उसे खा जाने वाली नजरों से घूरा।

एक तो पहले ही अपनी एक महीने की मेहनत पर पानी फिर जाने और फिर सुदेश द्वारा जमानत दिए जाने पर मैं भिन्नाया हुआ था, ऊपर से मकान मालिक के किराए वाला राग अलापने ने मेरा खून खौला दिया—हालांकि वह मुझसे डरता था और मेरे घूरने ने उसे सहमा भी दिया, परन्तु पैसा बड़ी चीज होती है। उसे पाने की इच्छा ने ही उसे मेरे सामने खड़ा रखा।

"तू यहां से जाता है या नहीं?" मैं गुर्राया।

"य.....य़े तो कोई बात नहीं हुई मिक्की।" उसने हिम्मत की—"चार महीने का किराया चढ़ गया है तुम पर, आज एक महीने बाद शक्ल दिखा रहे हो—बिजली और पानी तक के पैसे नहीं दिए, ऐसा कब तक चलेगा?"

"जब तक मेरे पास पैसे नहीं आएंगे।"

"इस तरह काम नहीं चलेगा मिक्की, आज फैसला हो ही जाना चाहिए—किराया दो या कमरा खाली कर दो—वर्ना आज मैं मौहल्ले के लोगों को इकट्ठा करके.....।"

"बुला.....किसे बुलाएगा, हरामजादे?" झपटकर मैंने दोनों हाथों से उसका गिरेबान पकड़ लिया—"देखूं तो सही तेरे हिमायती को।"

"अरे, मिक्की.....कब आया तू.....कहां गुम हो गया था, छाकटे?" चहकने के साथ ही लहकती हुई अलका हमारे नजदीक आई और मकान मालिक के गिरेबान पर मेरे हाथ देखते ही बोली— "अरे, आते ही फिर मारा-मारी शुरू कर दी—छोड़ इसे।"

मैंने पलटकर अलका की तरफ देखा।

पूरे अधिकार के साथ उसने मेरी कलाइयां पकड़ीं और उन्हें सेठ के गिरेबान से हटाती हुई बोली— "अरे छोड़ भी, क्यों उसकी जान को आ रहा है?"

"तू बीच में से हट जा, अलका!" मैं चीखा।

उसने दायां हाथ हवा में नचाया—"वाह, क्यों हट जाऊं?"

"आज मैं इसे देख ही लूं—मौहल्ला इकट्ठा करने की धमकी देता है।"

"मगर क्यों?"

मुझसे पहले मकान मालिक बोल पड़ा—"एक तो किराया नहीं देता, ऊपर से गुण्डागर्दी दिखाता है—ये कोई शराफत है?"

"म.....मैं शरीफ हूं ही कहां कुत्ते?" मैंने एक बार फिर उस पर लपकना चाहा, मगर अलका बीच में आ गई, जबकि वह इस तरह बोला जैसे अलका के रूप में बहुत बड़ा हिमायती मिल गया हो—"द.....देखो.....देखो, किस कदर उफना जा रहा है—अपने मकान का किराया मांगकर क्या गुनाह कर रहा हूं?"

"क्यों रे, छाकटे?" अलका ने सीधे मेरी आंखों में झांका—"इसका किराया क्यों नहीं देता?"

"तू यहां से चली जा, अलका।" मैं झुंझला-सा रहा था—"वर्ना.....।"

"वर्ना क्या करेगा?" वह झट अपने दोनों हाथ कूल्हों पर रखकर मेरे सामने अड़ गई।

बेबस-सा मैं बोला—"वर्ना ठीक नहीं होगा।"

"क्या ठीक नहीं होगा, जरा बता तो सही—सुनूं तो कि मेरा छाकटा क्या कर रहा है?"

"उफ!" मेरी झुंझलाहट चरम सीमा पर पहुंच गई, दांत और मुट्ठियां भींचे मैं कसमसाता हुआ कह उठा—"म.....मैं तेरा खून कर दूंगा।"

"आहा.....हा.....हा.....खून कर दूंगा, अरे जा छाकटे—वे कोई और होंगे जो तेरी गीदड़ भभकी से डर जाते हैं।" वह मुझे चिढ़ाने वाले अंदाज में कहने के बाद अपने हाथों से इशारा करती हुई बोली—"खून करने वालों का कलेजा इत्ता बड़ा होता है और तुझे मैं जानती हूं—चूहे से भी छोटा है तेरा दिल।"

जी चाहा कि झपटकर उसकी गर्दन दबा दूं, परन्तु ऐसा कर न सका—गुस्सा इतना तेज आ रहा था कि जाने क्या—क्या कहने की इच्छा के बावजूद मुंह से एक भी लफ्ज न निकला, मेरे तमतमाए चेहरे को देखकर हालांकि मकान मालिक की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी, मगर अलका पर लेशमात्र भी असर नहीं हुआ—“ लाला—जरा मौका देखकर तो बात किया कर—आज एक महीने में तो वह बेचारा आया है—जाने कहां—कहां मारा-मारा फिरा होगा—और एक तू है कि आते ही छाती पर चढ़ बैठा—जरा बैठने देता, आराम तो करने देता?"

"म.....मैंने ये कब कहा कि पैसा अभी दो?" लाला सकपका गया—"मैं तो ये पूछ रहा था कि कब देगा और ये उल्टा जवाब दे रहा है।"

"क्या कहा इसने?"

"कहता है कि अभी है नहीं, जब होगा दे देगा।"

"ठीक तो कहता है, जब है नहीं तो देगा कहां से?"

"म...मुझे इससे क्या मतलब?"

"अच्छा-अच्छा ठीक है, दिमाग न चाट मेरे छाकटे का—इस वक्त यह वैसे ही गर्म हो रहा है।" अलका ने कहा— "कितना पैसा निकलता है तेरा?"

"नौ सौ बाइस रुपये।"

"ठीक है, अपने नौ सौ बाइस रुपये तू मुझसे लेना लाला—कल अपने बैंक से निकालकर दे दूंगी और अब फूट यहां से, वर्ना सचमुच तुझे छाकटा मार बैठेगा।"

"अलका—तू.....।"

"तू चुप रह और इधर आ।" कहने के बाद उसने मेरा हाथ पकड़ा और कमरे के अन्दर घसीट ले गई—हमेशा की तरह विरोध करने की इच्छा के बावजूद मैं खिंचता चला गया।
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RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन - by desiaks - 06-13-2020, 12:57 PM

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