RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"उसके पैसे मुझ पर हैं, मैं ही दूंगा।"
"अरे जा-जा, अगर ऐसा ही देने वाला होता तो गली में खड़ा लाला तुझसे झगड़ न रहा होता—किराया नाक पर मारता उसकी।"
अलका के शब्द किसी नश्तर की तरह मेरे दिल को चीर गए; अजीब-सी टीस महसूस की मैंने, बोला—"तू भी मुझे ऐसा कहेगी अलका?"
"अरे.....तू तो उदास होना भी जानता है, छाकटे—मैं तो ये कहना चाहती थी कि जो ऊटपटांग धन्धे तू करता है, उनसे कभी किसी के पूरे नहीं पड़ते, मेहनत की एक रोटी खाने में बहुत 'मजा' है। खैर छोड़, तेरे-मेरे पैसे कोई अलग हैं क्या.....लाला को जुबान बन्द करना जरूरी था, वर्ना वह बवाल खड़ा कर देता।"
"किस-किसकी जुबान बन्द करेगी तू?" मैं गड़बड़ा उठा।
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नॉवल्टी थियेटर के पीछे स्थित देशी शराब का ठेका मेरा नहीं बल्कि आस-पास के लगभग सभी गुण्डों का अड्डा है। ठेकेदार के मुझ पर करीब पांच सौ रुपये बकाया थे और एक महीना पहले जब उसने कहा कि पिछला पेमेण्ट चुकता हुए बिना एक बूंद भी शऱाब नहीं देगा तो मैंने सीना ठोककर कहा था कि अब उसके ठेके में पूरा पेमेण्ट लेकर ही घुसूंगा।
उसी के बाद स्कीम बनाई, मेरठ रवाना हुआ।
आज की शाम, कंगली हालत में ही मुझे खींचकर, वहां ले गई।
हमपेशा लोग हमेशा की तरह गन्दी मेज-कुर्सियों पर बैठे पी रहे थे—मक्खियां भिनभिना रही थीं। उनके सामने रखी दारू, नमकीन दाल और चने आदि ने मेरी तलब को और भड़का दिया।
हलक शुष्क महसूस हुआ।
जीभ से सूखे हुए होंठों को तर करने की असफल चेष्टा के साथ सीधा काउण्टर पर पहुंचा। मुझे देखते ही ठेकेदार की बांछें खिल गईं। कदाचित् इस उम्मीद में कि पांच सौ रुपये मिलने वाले हैं, किन्तु अपनी उम्मीद पर पानी फिरते ही वह बिगड़ गया—मेरे दारू मांगने पर तो बुरी तरह भड़क उठा वह।
अपने गुण्डों को बुलाया।
ठेकेदार के पैर पकड़कर मैं दारू के लिए गिड़गिड़ा रहा था और उसके गुण्डों ने ठेके से बाहर फेंक देने के लिए अभी मुझे उठाया ही था कि—
"ठहरो!" वहां एक गुर्राहटदार आवाज गूंजी।
सभी ने चौंककर उस तरफ देखा।
वह रहटू था, जो अपने दाएं हाथ में खुला चाकू लिए ठेकेदार के गुण्डों को कच्चा चबा जाने के-से अंदाज में घूर रहा था। गुण्डों ने पलटकर ठेकेदार की तरफ देखा और ठेकेदार अभी अपनी कुर्सी से उठा ही था कि एक बार पुनः वहां रहटू की गुर्राहट गूंजी—"मेरे यार को छोड़ दो—वरना एक-एक की अंतड़ियां फाड़कर रख दूंगा।"
"नहीं रहटू, बेवजह झगड़ा मत कर, यार।" दुखी मन से मैं कह उठा—"गलती मेरी है।"
"क्या मतलब?"
"इसके मुझ पर पिछले पांच सौ रुपये उधार हैं—जेब में पैसे हैं नहीं—तलब उठी, सो यह सोचकर चला आया कि शायद और उधार मिल जाए।"
"इसका ये मतलब तो नहीं कि ये साले तेरी बेइज्जती करें—उठाकर ठेके से बाहर फेंक दें—रहटू अभी जिन्दा है मिक्की।"
"छोड़ यार—ये साली जिल्लत सहना तो अब आदत बन गई है—अगर तेरी जेब में कुछ हो तो दारू पिला दे।"
इस तरह झगड़ा होने से बचा।
ठेकेदार के निर्देश पर गुण्डों ने मुझे छोड़ दिया। रहटू ने चाकू जेब में डाला—मुझे साथ लिए एक बैंच पर बैठ गया।
रहटू बेहद नाटा था, सिर्फ तीन फुट का।
इस गुटकेपन ने ही उसे गुण्डागर्दी की जिन्दगी में कदम रखने पर विवश कर दिया। जब वह शरीफ ही नहीं बल्कि डरपोक था तो लोग उसे 'छटंकी' कहकर चिढ़ाते थे।
कद छोटा होने की वजह से रहटू मन-ही-मन खुद को 'हीन' महसूस करता था। यही वजह थी कि वह किसी के 'छटंकी' कहते ही बुरी तरह चिढ़ जाता—वह लोगों से रिक्वेस्ट करता कि छटंकी न कहा करें, परन्तु लोग मानते कहां हैं?
जितना मना करता, उतना ही ज्यादा चिढ़ाते।
एक दिन वह इतना चिढ़ गया कि फल बेचने वाले का चाकू उठाकर बार-बार 'छटंकी' कहने वाले के पेट में घोंप दिया—हालांकि उसे ज्यादा
चोट नहीं आई थी, मगर रहटू को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया—मर्डर करने की असफल कोशिश की धारा के तहत मुकदमा चला—कुछ तो जेल में, गुण्डों की सोहबत ने ही उसके दिल से डर निकाल दिया, कुछ जमानत पर बाहर आने के बाद पुलिस ने इस कदर परेशान करना शुरू किया कि विवश होकर रहटू ने एक चाकू खरीद लिया।
धीरे-धीरे गुण्डा बन गया।
उसे अपना यही रूप रास आया, क्योंकि अब भूल से भी कोई 'छटंकी' कहने की हिम्मत नहीं करता। मेरा अनुभव है कि जब कोई शरीफ और डरपोक युवक गुण्डागर्दी में कदम रखता है तो वह पेशेवर गुण्डों से कई गुना ज्यादा खतरनाक साबित होता है।
रहटू इस अनुभव पर खरा उतरा था।
वह गिट्ठा था मगर इतना ज्यादा फुर्तीला कि सामने वाले के छक्के छुड़ा देता—लड़ाई के वक्त वह गेंद की तरह उछल-उछलकर वार करता।
जब सौ-सौ ग्राम हमारे पेट में पहुंच गई तो मैं बोला— ''मैं तेरा एहसानमंद हूं रहटू।"
"कौन-से एहसान की बात कर रहा है?" रहटू ने घुड़का।
"आज अगर तू न आता तो ये दारू.....।"
"इस बारे में अगर तूने मुझसे और ज्यादा बकवास की तो.....वे ठेकेदार के चमचे तो साले कुछ कर न सकें मगर मैं उठाकर सचमुच ठेके से बाहर फेंक दूंगा।"
उक्त शब्द उसने ऐसे अंदाज में कहे थे कि मैं कुछ बोल न सका, जबकि कुछ देर की खामोशी के बाद उसने स्वयं ही कहा— "अगर दुनिया में किसी को दोस्त मानता हूं तो वह तू है, मिक्की.....सिर्फ तू—मेरी जिन्दगी मुझ पर तेरा कर्ज है।"
"तू फिर वही बेकार की बात करने लगा!"
"वह तेरे लिए बेकार की बात हो सकती है, मिक्की, मगर मेरे लिए ठोस हकीकत है।" गम्भीर स्वर में रहटू कहता चला गया—"उस दिन पैट्रोल पम्प पर साले छैनू ने मुझे अपने ग्यारह गुर्गों सहित घेर लिया था—बात केवल घेरने तक ही सीमित नहीं थी बल्कि वे हरामजादे मुझ पर इस कदर पिल पड़े कि जान निकालने में मुश्किल से एक ही क्षण बाकी रह गया था—तभी मेरे लिए फरिश्ता बनकर तू वहां पहुंच गया—तूने न सिर्फ मुझे उनके चंगुल से बचाया, बल्कि जख्मी हालत में हस्पताल भी पहुंचाया—वह कर्ज क्या इस दारू से उतर जाएगा, नहीं मिक्की.....नहीं, कभी रहटू को आजमाकर देखना, दोस्त—जो जिन्दगी तेरा कर्ज है, उसे तेरे लिए गंवाने पर मुझे फख्र होगा—मैं तो उस क्षण की फिराक में रहता हूं पगले जब तेरे किसी काम आ सकूं।"
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