RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"तूने तो बेवजह दिल में एक गांठ बांध ली है, रहटू।" मैं बोला— "वे हालात ही ऐसे थे कि मैं तेरी मदद के लिए कूद पड़ा।"
"छोड़।" रहटू ने विषय बदला—"ये बता—महीने भर कहां गुम रहा, मैं तेरे कमरे पर भी गया था—वहां तेरे मकान के सामने वाले मकान में किराए पर अकेली रहने वाली अलका मिली—वह तेरे लिए मुझसे भी ज्यादा परेशान थी।"
"तेरे ख्याल से मैं क्यों गुम रहा होऊंगा?"
"पता लगा कि तू बुरी तरह कर्जों से घिर गया है, तब यह अनुमान लगाया कि इन कर्जों से निजात पाने के लिए निश्चय ही तू किसी लम्बे दांव की फिराक में होगा, मगर.....।"
"मगर?"
"न तेरी जेब में ठेकेदार का कर्ज चुकाने के लिए कुछ है, न ही आगे दारू पीने के लिए, सो मेरा अनुमान गलत साबित हुआ।"
मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई—"तेरा अनुमान गलत नहीं था, दोस्त।"
"क्या मतलब?"
"मैं सचमुच लम्बे दांव के सिलसिले में एक महीना गायब रहा।"
"फिर?"
"फिर क्या?"
"क्या रहा?"
"रहना क्या था, वही हुआ जो मेरे साथ हमेशा होता आया है।" मैं टूटे स्वर में कह उठा—"वह साला फिर धोखा दे गया।"
"क.....कौन?"
"वही.....मेरा पुराना दुश्मन।"
"नसीब?" रहटू ने पूछा।
"हां।" गुस्से की ज्यादती के कारण खुद-ब-खुद मेरे दांत भिंच गए—"यह साला बचपन से मुझे धोखा देता चला आ रहा है—सोने की खान में हाथ डालता हूं तो राख के ढेर में तब्दील हो जाती है, हाथ पर हीरा रखकर मुट्ठी बंद करूं तो खोलने तक कोयले में बदल चुका होता है।"
"हुआ क्या था?"
अपनी ठगी का किस्सा मैं उसे बेहिचक बताता चला गया और गिरफ्तारी तक की घटना का जिक्र करके कहा—“ मेरठ में मेरे द्वारा की गई ठगी—मेरी असफलता और गिरफ्तारी नसीब की मार नहीं तो और क्या है?”
"सच यार, जब तू शूरू-शुरू में कहा कहता था कि नसीब मेरा दुश्मन है तो मैं मजाक समझता था—मन-ही-मन बेवकूफ करार दिया करता था तुझे, मगर अब तेरी जिन्दगी में घटीं बहुत-सी घटनाओं से वाकिफ हो चुका हूं—और हर घटना से यही साबित होता है कि नसीब सचमुच तेरा बड़ा दुश्मन है।"
अनायास मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई। जाने किस भावना के वशीभूत उससे अपने दिल की बात कह उठा—"अब तो दिल ये चाहता है यार कि जाकर रेल की पटरी पर लेट जाऊं और जब रेल आए तो उसे अपनी गर्दन पर से गुजर जाने दूं—या कहीं से जहर मिल जाए। मरने के हजारों तरीके हैं दोस्त—गंदी नाली में रेंगते कीड़े की जिन्दगी से भी बदतर इस जिन्दगी से हर किस्म की मौत बेहतर होगी।"
रहटू के चेहरे पर सख्त नागवारी के चिन्ह उभर आए। मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरता हुआ बोला— "क्या बक रहा है तू?"
"मैं ठीक कह रहा हूं, रहटू।" कदाचित नशे की झोंक में मैं इतना जज्बाती हो उठा था कि जो नहीं कहना चाहिए था, वह भी कहता चला गया—"लूट, राहजनी, चोरी और ठगी के अदालत में मुझ पर इतने केस चल रहे हैं कि उनकी गिनती मुझे स्वयं ही याद नहीं—तुझ सहित हर परिचित के कर्जे से दबा हूं—कहीं साली कोई इज्जत नहीं। हर जगह, कदम-कदम पर बेइज्जती और जिल्लत सहनी पड़ती है, मेरी तरफ उठने वाली हर निगाह में नफरत होती है.....उफ.....परेशान आ गया हूं इस जिन्दगी से—क्या ऐसी जिन्दगी से मौत अच्छी नहीं है रहटू?"
"तू इतना निराश क्यों हो गया है मिक्की, इतना क्यों टूट गया है, यार?" रहटू वेदनायुक्त स्वर में कहता चला गया—"अभी मैं जिन्दा हूं, ऐसी तो मेरे ख्याल से अभी कोई प्रॉब्लम नहीं आई जिसे हल न किया जा सके? इतनी सारी प्रॉब्लम का एक ही हल है, पैसा—और पैसा कोई चीज नहीं जिसे हासिल न किया जा सके—अगर मेरठ में की गई ठगी नाकाम हो गई तो गोली मार उसे—उससे भी बेहतर और प्रयास किया जा सकता है।"
"हुंह.....सारे प्रयास बेकार हैं—नसीब ही जिसका दुश्मन है, उसका कोई भी प्रयास भला कैसे कामयाब हो सकता है?"
जवाब में रहटू कुछ न कह सका—जाने कहां से मेरे जेहन में अलका का चेहरा उभर आया और मैं बरबस ही बड़बड़ा उठा—"हुंह.....साली पागल है।"
"कौन?" रहटू उछल पड़ा।
"अलका।"
"अलका?"
"हां, उस बेवकूफ को समझाते-समझाते दो साल हो गए, मगर जाने मुझमें ऐसा क्या नजर आता है उसे कि अपनी जिन्दगी तबाह करने पर तुली है।"
"वह तुझसे प्यार करती है।"
"हुंह.....क्या मैं प्यार करने लायक हूं?"
"क्या कमी है तुझमें?"
"लो—अब अपनी कमियां गिनवानी पड़ेंगी!" टूटे हुए अंदाज में मैं ठहाका लगा उठा—"छोड़ यार, ऐसा क्या है जो तू नहीं जानता—अपनी इस जलालत भरी जिन्दगी से तंग आ गया हूं मैं, अगर किसी से न कहे तो अपने बारे में तुझे एक राज की बात बताऊं।"
"क्या?"
मैं सचमुच बहक गया था, तभी तो उसे वह राज बता बैठा, जो अलका तक पर जाहिर नहीं होने दिया था, बोला— "एक महीना पहले जब मैं स्कीम बनाकर मेरठ के लिए रवाना हुआ, तभी सोचा था कि वह ठगी मेरे जीवन का अंतिम जुर्म होगी, कामयाबी मिलने पर सारे कर्जे चुका दूंगा और उसके बाद, जुर्म की इस काली दुनिया को अलविदा कह कर वही करूंगा जो अलका कहती है—उससे शादी कर लूंगा मैं—उस वक्त यह बेवकूफाना ख्याल मेरे जेहन में घर कर गया था—अब सोचता हूं तो खुद पर हंसी आती है।"
रहटू की आंखें चमक उठीं। बोला— "व.....वैरी गुड—वैरी गुड मिक्की, तू कल्पना भी नहीं कर सकता कि तेरे ये विचार सुनकर मुझे जितनी खुशी हुई है—तेरे प्रति अलका की दीवनगी ने सचमुच मुझ तक को झंझोड़ डाला है—दो साल की तपस्या का ये पुरस्कार उसे मिलना ही चाहिए—वाकई, जुर्म की इस जिन्दगी में कुछ नहीं रखा—छोड़ दे इसे, अभी—इसी वक्त, यहीं से तौबा कर ले कि तू भविष्य में कभी कोई जुर्म नहीं करेगा।"
"कर्जदार मेरी इस 'तोबा' को कितने दिन कायम रहने देंगे?"
"उनसे निपटने के बारे में भी कुछ सोच लेंगे।"
"एक तरीका है।"
"क्या?"
मैंने उसे अपना भावी प्रोग्राम बताया—"सुरेश के पास जाने की सोच रहा हूं।"
"स.....सुरेश?" रहटू उछल पड़ा।
"हां।"
"म......मगर क्यों, वह भला इसमें क्या कर सकता है?"
"ठगी के आरोप में पकड़े जाने पर हमेशा की तरह इस बार भी मेरी जमानत उसी ने कराई है।" सुरेश की स्मृति मात्र मुझे पागल कर देती थी—अजीब उत्तेजना में फंसा दांत भींचे मैं कहता चला गया—"दिल्ली का माना हुआ वकील उसने अदालत में भेज दिया, मेरी इच्छा के विरुद्ध उसने जमानत करा ली।"
"सुरेश आखिर चाहता क्या है?" रहटू कह उठा—"वह आज करोड़पति है, चाहे तो तेरे वजन के बराबर धन तौलकर दे सकता है मगर ऐसा नहीं करता—शुरू-शुरू में तो रुपये-पैसे से तेरी मदद कर भी देता था, परन्तु फिर वह भी बन्द कर दी—दुत्कार कर तुझे अपने ऑफिस से निकाल दिया और जमानत हर बार करा लेता है, जेल में तुझे रहने नहीं देता—ऐसा आखिर वह क्यों करता है?"
"जब मैं पिछली बार उसके ऑफिस में गया और दो हजार रुपये मांगे, तो उसने कहा था कि वह मुझे रुपये इसलिए नहीं दे रहा है, क्योंकि उसकी मदद से मैं और बिगड़ता जा रहा हूं।"
"बकता है साला, रुपये नीयत से नहीं छूटते और ऊपर से शुभचिन्तक होने का ढोंग भी करता है।"
"पता लग जाएगा कि वह ढोंग करता है या वास्तव में मुझे सुधारने के लिए ही पैसा देने से इंकार करता है।"
"कैसे?"
"आज मैं उससे दस हजार रुपये मांगने वाला हूं, साफ-साफ बताऊंगा कि दस हजार में से कुछ तो खुद को उस जंजाल से निकालने में खर्चूंगा जिसमें लोगों का उधार लेकर फंस गया हूं, बाकी से नई जिन्दगी की शुरूआत करूंगा—शराफत और मेहनत की जिन्दगी।" मैं अपने ख्वाब उसे बताया चला गया—"सच, रहटू, अगर उसने मदद कर दी तो मैं अलका को अपना लूंगा, वर्ना.....।"
"वर्ना?"
"अगर यह सुनकर भी इंकार कर दिया तो जाहिर हो जाएगा दोस्त कि वह वास्तव में मेरा शुभचिन्तक नहीं है, बल्कि सिर्फ शुभचिन्तक होने का ढोंग करता है—वह मुझे सुधारना नहीं चाहता, बल्कि चाहता है कि मैं और बिगड़ता चला जाऊं.....धंसता चला जाऊं जुर्म की इस दलदल में।"
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