FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
06-13-2020, 01:03 PM,
#23
RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"लेकिन तुम्हारी डायरी के इस झूठ को पुलिस पकड़ सकती है?"
"नहीं पकड़ सकती।" उसने उंगली से अपना सीना ठोकते हुए कहा— "जब ये सुरेश स्वयं पुलिस के सामने स्वीकार कर रहा है कि हां, मिक्की मेरे पास आया था और डायरी में लिखी बातें हुई थीं तो पुलिस बेचारी भला कहां से पकड़ लेगी?"
"वह विनीता या कोठी के चौकीदार से.....।"
"किसी अन्य से पूछताछ पुलिस तब करती है, जब कहीं कोई 'शक' हो और शक की गुंजाइश कहीं है ही नहीं, क्योंकि जो कुछ मिक्की ने लिखा है, पुलिस की नजरों में 'सुरेश' उसे स्वीकार कर रहा है।"
"जब तुम्हें मालूम था कि योजना के अनुसार सुरेश बनने वाले हो तो मिक्की के रूप में आत्महत्या का जिम्मेदार तुमने 'सुरेश' को ही क्यों ठहराया—क्या तब यह नहीं सोचा था कि वह लफड़े में फंसेगा?"
"खूब मालूम था।"
"फिर?"
"यदि मैं ऐसा न लिखता यानी मिक्की के रूप में आत्महत्या की जिम्मेदारी 'सुरेश' पर न डालता तो वह 'मिक्की' की उस मानसिकता के ठीक विपरीत होता जिसके बारे में लगभग सभी परिचित जानते थे—सबको मालूम था कि 'मिक्की' सुरेश से डाह करता है—उसके दस हजार रुपये न देने की वजह से मिक्की ने आत्महत्या की है और सुरेश निर्दोष है तो यह अस्वाभाविक होता और मिक्की की डायरी की सच्चाई पर शक किया जा सकता था—एक तरफ मुझे यह ध्यान रखना था। दूसरी तरफ चूंकि भविष्य का सुरेश भी मैं ही था, अतः मिक्की के रूप में इतना भी नहीं लिख सकता था, कि भविष्य का सुरेश फंस जाए—दोनों पक्षों का बैलेंस बनाकर मैंने ऐसा लिखा जिससे कि सुरेश का बुरा चाहने वाली मिक्की की मानसिकता भी पूरी तरह झलके और सुरेश का कुछ बिगड़ भी न पाए—मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मिक्की के रूप में जो कुछ डायरी में लिखा है, वह सुरेश के रूप में मुझे किसी कोर्ट में मिक्की को आत्महत्या के लिए उकसाने का मुजरिम नहीं ठहरा सकता—डायरी का वह हिस्सा मैंने खूब सोच-समझकर बैलेंस करके लिखा है—उसका सबसे बड़ा फायदा मुझे यह मिला कि कोई भी इस बात की कल्पना नहीं कर सकता कि मैं मिक्की हूं।"
"सुरेश की हत्या तुमने कैसे की?"
"वह मेरे लिए अपनी पूरी योजना का सबसे आसान काम था, क्योंकि सुरेश वास्तव में मुझसे बहुत प्यार करता था, बड़े भाई के रूप में बहुत आदर करता था मेरा।"
"तुम तो कहते थे कि.....।"
"हां, मैं कहता था कि वह वास्तव में आदर नहीं करता, बल्कि आदर करने का नाटक करता हैं—ऐसा ही मैंने डायरी में लिखा है मगर वह गलत है अलका—मैं जानता हूं कि वह सचमुच मुझे चाहता था, आदर करता था—'डाह' के कारण मैं ही अपने परिचितों से उसके बारे में झूठ बोलता था।"
"ओह!"
"कल रात को तिहाई डायरी लिखने के बाद मैं कमरे की लाइट खुली छोड़कर गुप्त रूप से बाहर निकला—इस बात का पूरा ख्याल
रखता हुआ कि किसी की नजर मुझ पर न पड़े—चांदनी चौक पहुंचा, पब्लिक टेलीफोन बूथ से सुरेश की कोठी का नम्बर डायल किया, रिसीवर उठाए जाने के साथ ही सुरेश की आवाज उभरी—"हैलो।"
"मैं मिक्की बोल रहा हूं सुरेश।" मैंने कहा।
"हैलो भइया।" उसने पूरे आदर के साथ कहा— "कहां से बोल रहे हो तुम?"
मैंने उसके सवाल पर ध्यान न देते हुए पूछा—"इस वक्त तुम्हारे आस-पास कौन है सुरेश?"
"कोई नहीं, क्यों?"
"विनीता कहां है?"
"वह अभी क्लब से लौटी नहीं है।"
मैंने अपने स्वर में घबराहट उत्पन्न करते हुए कहा— "मैं एक अजीब और बहुत बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं, सुरेश। इस मुसीबत से तुम ही मुझे छुटकारा दिला सकते हो।"
"हुआ क्या है?" सुरेश का बेचैन स्वर।
"बात लम्बी है, फोन पर नहीं बताई जा सकती—अगर तुम मुझसे जरा भी प्यार करते हो तो इसी वक्त मेरे कमरे पर आ जाओ, वहीं बैठकर सारी बातें बताऊंगा.....अगर तुम नहीं आए तो मैं.....।"
"मैं आ रहा हूं, भइया।"
"मगर ठहरो।" मैंने उसके रिसीवर रखने से पहले ही कहा— "तुम्हें सुबह दस बजे तक के लिए मेरे पास आना है, अतः सारी रात घर से बाहर रहने का कोई अच्छा-सा बहाना बनाकर आना—वहां किसी को इल्म नहीं होना चाहिए कि तुम मेरे पास आ रहे हो।"
"ऐसा क्यों?"
उसकी बात काटकर मैंने आगे कहा, "इधर खारी बावली में भी तुम पर किसी की नजर न पड़े सके—अगर मेरे या तुम्हारे किसी परिचित ने तुम्हें यहां आते देख लिया तो मेरे बचाव का जो एकमात्र रास्ता है, वह हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा, अतः जितनी जल्दी हो सके पूरी तरह गुप्त तरीके से मेरे कमरे में पहुंचो।"
¶¶
मैं पूरी तरह आश्वस्त था कि वह आएगा।
स्वयं को रोकना भी चाहे तो यह सुनने के बाद नहीं रोक सकेगा कि मैं मुसीबत में हूं, अतः जिस तरह छुपता-छुपाता पब्लिक टेलीफोन बूथ तक गया था, उसी तरह कमरे में लौट आया—एक बार फिर सारी योजना को दिमाग से गुजारते हुए मैंने लिहाफ से रुई, चारपाई से अदवायन निकाली।
रस्सी के एक सिरे को मैं फंदे की शक्ल दे चुका था, सारा सामान गंदे तकिए के नीचे छुपाकर सुरेश के आने का इन्तजार करने लगा। करीब एक घण्टे बाद दरवाजे पर आहिस्ता से दस्तक हुई।
दरावाजा खोलते-खोलते मैंने अपने चेहरे पर घबराहट और बौखलाहट के भावों को आमंत्रित कर लिया—सुरेश के अन्दर आते ही मैंने दरवाजा इस तरह बन्द किया कि यदि वह एक सेकण्ड़ भी खुला रह गया तो कोई मुसीबत अन्दर आ जाएगी।
"क्या बात है, भइया, आप इतने डरे हुए क्यों हैं?"
"बैठो सुरेश।"
वह स्टूल पर बैठ गया।
'स्काई कलर' के उसके शानदार और कीमती सूट पर नजरें गड़ाए मैं चारपाई की 'बाही' पर बैठा, बीड़ी सुलगाने के बाद बोला— "अपनी ट्रेजड़ी का जिक्र बाद में करूंगा, पहले ये बताओ कि किस बहाने के साथ रात-भर बाहर रहने के लिए आए हो?"
"विनी तो क्लब से अभी लौटो नहीं थी, काशीराम से कह आया हूं कि वह आए तो बता दे कि मैं बिजनेस के सिलसिले में शहर से बाहर जा रहा हूं कल सुबह दस बजे तक लौट आऊंगा।"
"क्या वह तेरे रात-भर गायब रहने पर नाराज नहीं होगी?"
"नहीं।" सुरेश का स्वर सपाट और ठंडा था।
मैं चुप रहा।
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RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन - by desiaks - 06-13-2020, 01:03 PM

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