RE: FreeSexkahani नसीब मेरा दुश्मन
"हां, बोलो नसीम—तुम मुझसे क्या बात करना चाहती थीं?"
दूसरी तरफ से कहा गया—"यहां पुलिस आई थी।"
"प.....पुलिस?" मिक्की का लहजा कांप गया।
"हां.....वे मुझसे पूछ रहे थे कि तुमसे मेरा क्या सम्बन्ध है?"
मिक्की के मुंह से निकला—"फ.....फिर?"
"फिर से क्या मतलब?"
"म.....मेरा मतलब तुमने क्या कहा?"
"फिलहाल तो कह दिया कि तुमसे मेरा कोई व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं है, मगर मुझे खतरा मंडराता नजर आ रहा है सुरेश—लगता है कि पुलिस ने मेरे बयान पर कतई यकीन नहीं किया है—वे निश्चय ही दूसरे रास्तों से छानबीन करेंगे, उधर मनू और इला भी मुंह फाड़ रहे हैं—वे बेवकूफ किसी भी क्षण कुछ बक सकते हैं—अगर तुमने जल्दी ही कुछ न किया तो हम फंस जाएंगे, पुलिस का वह खुर्राहट इंस्पेक्टर सारे रहस्य से वाकिफ हो जाएगा।"
उसके किसी वाक्य का अर्थ मिक्की की समझ में न आया—हां, इतना जरूर समझ सकता था कि इन बातों का मतलब सुरेश अच्छी तरह समझ सकता था और इसीलिए उक्त बातों के सम्बन्ध में वह नसीम से कोई सवाल न कर सका। बहुत सोच-समझकर उसने कहा— "ठीक हैं, मैं कुछ करता हूं।"
"याद रहे, अगर कुछ गड़बड़ हो गई तो मेरा शायद उतना कुछ नहीं बिगड़ेगा, क्योंकि मैं तो हूं ही एक उपेक्षित जीव, मगर तुम...।" नसीम ने चेतावनी दी—"तुम बरबाद हो जाओगे सुरेश.....सारा जमाना तुम पर थूकेगा।"
सवाल करने की मिक्की की प्रबल इच्छा हुई, मगर मजबूर था। सवाल करने का मतलब था नसीम पर यह जाहिर कर देना कि वह सुरेश नहीं, कोई और है, अतः उसने सिर्फ इतना ही कहा— "मैं समझता हूं।"
"ओoकेo।" कहकर दूसरी तरफ से रिसीवर रख दिया गया।
इधर, रिसीवर क्रेडिल पर रखते वक्त मिक्की का हाथ सौ साल के बूढ़े की तरह कांप रहा था—चेहरे पर दो राउंड लड़ चुके मुक्केबाज जितने पसीने थे और सांस लम्बी दौड़ जीतने वाले धावक की तरह फूल रही थी।
दिल हथौड़े की तरह पसलियों पर चोट कर रहा था।
दिलो-दिमाग—हाथ-पांव।
सब कुछ सुन्न।
ठीक से कुछ सोच नहीं पा रहा था वह।
दिमाग में अनेक सवाल घुमड़ रहे थे।
नसीम कौन है—मनू और इला कौन हैं—पुलिस का क्या चक्कर है, ऐसा वह कौन-सा रहस्य है जिस तक यदि पुलिस पहुंच गई तो सुरेश (अब वह) बर्बाद हो जाएगा—नसीम के साथ सुरेश का क्या सम्बन्ध था?
जवाब एक सवाल का भी नहीं।
मिक्की का मस्तिष्क ठीक इस तरह झनझनाता रहा जैसे फर्श पर गिरने के बाद कुछ देर तक स्टील की प्लेट झनझनाती रहती है। जिस्म का सारा बल जाने कहां लुप्त हो गया। खुद को वह अपनी टांगों पर खड़ा न रख सका—'धम्म' से बेड पर गिरा और एक सिगरेट सुलगाने के बाद उसमें कश लगाने लगा।
वह सोचता रहा।
सोचता रहा।
समय काफी गुजर गया। सिर में दर्द होने लगा और उस वक्त दस बजने में पन्द्रह मिनट बाकी थे, जब सुरेश के पर्सनल सेक्रेटरी विमल मेहता ने कमरे में कदम रखा।
मिक्की संभला।
"गुड मॉर्निंग सर।"
अपने हाथों में दबीं फाइलों को संभालते हुए विमल ने पूछा—"क्या चलेंगे नहीं सर?"
"कहां?" मिक्की ने मूर्खों की तरह गर्दन उठाकर कहा।
"ऑफिस सर, और कहां?"
"आ-ऑफिस.....हां, चलेंगे क्यों नहीं—ऑफिस जरूर चलेंगे।"
उसे बड़ी गहरी नजरों से घूरते हुए विमल ने कहा— "क्या बात है सर, आज आप कुछ अपसैट लग रहे हैं।"
"अपसैट.....नहीं तो—मैं बिल्कुल ठीक हूं, चलो।" बौखलाया-सा मिक्की उठकर खड़ा हो गया—बहुत कुछ खटकने के बावजूद विमल ने कुछ पूछा नहीं।
वे कोठी से बाहर आए।
पिछली सीट पर उनके बैठते ही ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
साठ की रफ्तार पर मर्सडीज सड़क पर दौड़ती नहीं बल्कि पानी पर तैरती-सी लग रही थी—जिस सड़क से वह इस वक्त गुजर रही थी, वहां ज्यादा ट्रैफिक न था।
कार में सन्नाटा।
मिक्की अपने विचारों में गुम था।
एकाएक विमल ने पुकारा—"सर!"
"हां।" वह चौंका नहीं बल्कि उछल पड़ा।
"आज आप सचमुच अपसैट हैं।"
"न.....नहीं तो।"
"माफ कीजिए, यदि ऐसा न होता तो हमेशा की तरह आज भी आप गाड़ी में मुझसे बिजनेस से सम्बन्धित बातें कर रहे होते?"
"बिजनेस से सम्बन्धित?"
"जी हां, आज अभी तक आपने मुझे कोई निर्देश नहीं दिया है, किस पार्टी को कितना माल भेजना है—किसे भेजना है, किसे नहीं और फिर आज तो कलकत्ता से मानिकलाल को भी आना है, उससे किस ढंग से बात करनी है?"
"ढंग से क्या मतलब?"
"जी— ?" हैरत में डूबे इस अलफाज के साथ विमल ने चकित अन्दाज में उसकी तरफ देखा। कुछ ऐसे अन्दाज में कि मिक्की का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। मस्तक पर पसीने की बूंदें झिलमिलाने लगीं, जबकि विमल ने कहा— "मानिक लाल पर हमारे पिछले माल के दो लाख रुपये बकाया है, हमारी फर्म का सख्त नियम है कि जब तक पिछले माल का भुगतान नहीं होगा, तब तक माल की दूसरी खेप सप्लाई नहीं की जाएगी और मानिक लाल ऐसा चाहता है।"
"इसमें पूछने वाली क्या बात है?" संभलने की कोशिश करते हुए मिक्की ने अपनी तरफ से काफी सही जवाब दिया—"फर्म के नियमों का सभी पर पूरी सख्ती से अमल होना चाहिए, जब तक मानिक लाल पिछले माल का पेमेण्ट नहीं कर देता तब तक.....।"
"फिर 'वैलकम इण्डस्ट्री' से हम कैसे निपटेंगे?"
"वैलकम इण्डस्ट्री?" मिक्की की खोपड़ी नाच गई।
"जी हां, कलकत्ता में हमारे माल को खपाने वाली सिर्फ दो ही फर्में थीं, एक मानिक लाल और दूसरी मनचंदा—मनचंदा को तो हमारी प्रतिद्वन्दी इण्डस्ट्री 'वैलकम' पहले ही तोड़ चुकी है—आज वह हमारे स्थान पर वैलकम इण्डस्ट्री का माल मंगाता है, रह गया सिर्फ मानिक लाल—उसका कहना है कि यदि हमने उसे माल उधार नहीं भेजा तो वह भी वैलकम इण्डस्ट्री से ट्रांजेक्शन शुरू कर देगा।"
"फिर?"
"अगर ऐसा हो गया तो कलकत्ता के बाजार पर वैलकम इण्डस्ट्री का माल छा जाएगा—हम वहां पिट जाएंगे, कलकत्ता में मानिक लाल और मनचंदा का पूरा होल्ड है—आप जानते ही हैं कि कोई अन्य फर्म वहां हमारे माल को अच्छी परफॉर्मेन्स नहीं दे सकती।"
मिक्की का दिमाग नाच गया।
समझ में न आया कि क्या कहे—इस झमेले के सम्बन्ध में विमल को क्या निर्देश दे, सोचने के बाद उसने कहा— "कुछ देर सोचने के बाद हम इस बारे में फैसला करते हैं।"
विमल ने उसे अजीब-सी नजरों से देखते हुए कहा— "आज आप सचमुच अपसैट हैं, सर।"
"क.....क्यों?" मिक्की बौखला गया।
"बिजनेस से सम्बन्धित हर व्यक्ति आपके 'फैसला लेने की शक्ति' की तारीफ ही नहीं करता, बल्कि लोग हैरत करते हैं—कहते हैं कि बिजनेस से सम्बन्धित किसी भी दुविधा को आप चुटकी बजाते ही हल कर लेते हैं और आपके लिए गए फैसलों के परिणाम अधिकतर फायदे के निकलते हैं—सारी इण्डस्ट्री में मशहूर है कि आप सोचते नहीं, पलक झपकते ही फैसला करते हैं।"
मिक्की ने बुरी मुश्किल से कहा—"हमारे सर में थोड़ा दर्द है।"
"मैं पहले ही कह रहा था कि आप अपसैट हैं, वर्ना ये मानिक लाल और वैलकम इण्डस्ट्री वाली समस्या भला क्या हैं, बड़ी-से-बड़ी समस्या को तुरन्त हल कर देना ही तो आपके कैरेक्टर की खासियत है।"
मिक्की चुप रह गया।
बोले भी तो क्या?
लग रहा था कि वह जितने ज्यादा शब्द बोलेगा, उतनी ही गलतियां करेगा।
समझ में न आ रहा था कि बिजनेस से सम्बन्धित वे फैसले वह कैसे ले सकेगा जो सुरेश लिया करता था—बिजनेस के बारे में उसकी जानकारी 'निल' थी—कभी ऐसा कुछ किया हो तो ज्ञान भी हो, जबकि सुरेश की इमेज धुरंधर बिजनेसमैन की थी।
पहनावे, हाव-भाव, चाल-ढाल और शक्ल-सूरत से भले ही वह खुद को सुरेश साबित किए रखे।
परन्तु—
सुरेश की बुद्धि कहां से लाएगा?
बौद्धिक स्तर पर वह कैसे और कब तक सुरेश बना रह सकता है?
इस अड़चन की तरफ उसका ध्यान पहले नहीं 'अब' गया था—उस वक्त तो उसने सिर्फ यही सोचा था कि सुरेश की शक्ल-सूरत उस पर हैं ही—आवाज की नकल और उसके हाव-भाव की एक्टिंग वह कर सकता है। सो—हमेशा के लिए सुरेश बन जाएगा, मगर अब?
सुरेश बन जाना उसे अपनी सबसे बड़ी बेवकूफी लगी।
सुरेश की हर एक्टिविटी की नकल हो सकती है, मगर उसकी-सी बुद्धि कहां से लाएगा—अगर बिजनेस से सम्बन्धित या इंग्लिश का लिखा कोई भी कागज उसके सामने आ गया तो उसे वह कैसे पढ़ेगा, कैसे समझेगा—जबकि सुरेश फर्राटे के साथ इंग्लिश पढ़ता था।
क्या ऐसे किसी स्पॉट पर वह पकड़ा नहीं जाएगा?
मिक्की के मस्तिष्क में घुमड़ते ऐसे सैकड़ों विचार उसे आतंकित किए दे रहे थे कि अचानक ड्राइवर के मुंह से निकला—"अरे।"
वह ब्रेक पर जोर-जोर से पैर मार रहा था।
"क्या हुआ? विमल ने पूछा।
"ब्रेक नहीं लग रहे हैं सर।" असफल प्रयास करते ड्राइवर ने बौखलाए स्वर में कहा— "किसी ने फेल कर रखे हैं शायद।"
विमल और मिक्की के दिलो-दिमाग पर एक साथ बिजली गिरी।
दोनों बुरी तरह हड़बड़ा गए।
"अरे.....अरे संभालो।" विमल चीख पड़ा—"सामने से ट्रक आ रहा है।"
ड्राइवर ने तेजी से स्टेयरिंग घुमाया।
हालत तीनों की खराब थी।
पसीने से लथपथ।
मिक्की मूर्खों की तरह चिल्लाया—"य......ये कैसे हो गया, ब्रेक किसने फेल किए हैं?
जवाब कौन दे?
ट्रक मर्सडीज की बगल से गुजर चुका था।
कदाचित ड्राइवर की बौखलाहट के कारण गाड़ी सड़क पर लड़खड़ाने लगी थी, बुरी तरह आतंकित वह चिल्लाया—"आप अपनी-अपनी तरफ का दरवाजा खोलकर बाहर कूद जाइए साहब, गाड़ी मेरे काबू से बाहर.....।"
विमल ने उसका वाक्य पूरा होने से पहले बाहर जम्प लगा दी।
बौखलाए हुए मिक्की ने भी दरवाजा खोला।
मुश्किल से दो या तीन पल हवा में तैरने के बाद वह तारकोल की पक्की सड़क पर इतनी जोर से टकराया कि मुंह से निकली चीख फिजां में दूर-दूर तक गूंज गई। उसे नहीं मालूम कि जिस्म के किस हिस्से में कितनी चोट लगी थी।
दिमाग सांय-सांय कर रहा था।
कलाबाजियां खाता अभी वह सड़क पर लुढ़क ही रहा था कि पीछे से आने वाली कार उसके समीप से, इतने समीप से गुजर गई कि मिक्की के रोंगटे खड़े हो गए—लगा कि यदि एक इंच का भी फर्क रह जाता तो तेजरफ्तार कार उसे कुचलती हुई निकल जानी थी।
धड़ाम।
एक जबरदस्त विस्फोट की आवाज से आस-पास का इलाका दहल उठा।
यह विस्फोट मर्सडीज के एक पेड़ से टकराने का था। ड्राइवर विहीन होते ही वह गन से निकली बुलेट के समान पेड़ से जा टकराई थी।
एक तरफ वह धूं-धूं करके जल रही थी, दूसरी तरफ मिक्की के शरीर ने जब सड़क पर लुढ़कना बन्द किया तो उसने स्वयं को होश में पाया।
यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी कि वह बेहोश नहीं हुआ।
चोटें जब तक गर्म रहती हैं, तब तक उनकी गम्भीरता का अहसास नहीं होता। वे चीखती तब हैं, जब ठंडी पड़ जाएं—शायद इसीलिए काफी सख्त चोटों के बावजूद थोड़ा-सा प्रयास करने पर ही मिक्की खड़ा हो गया।
दृष्टि सफेद रंग की उस एम्बेसेडर के पिछले हिस्से पर टिकी हुई थी, जिसके नीचे कुचलने से वह बाल-बाल बचा था।
फर्राटे भरती एम्बेसेडर निरन्तर उससे दूर होती जा रही थी।
अचानक!
उस वक्त मिक्की चौंका, जब एकाएक एम्बेसेडर की रफ्तार कम हुई। अंग्रेजी के अक्षर 'यू' का आकार बनाकर वह सड़क पर टर्न हुई और फिर पहले की तरह फर्राटे भरती हुई वापस यानी मिक्की की तरफ लपकी।
मिक्की के मस्तिष्क में न जाने क्यों खतरे की घंटी घनघनाने लगी।
हालांकि यह विचार उसके दिमाग में आया कि एम्बेसेडर वाला मर्सडीज को दुर्घटनाग्रस्त होते देखकर मदद हेतु वापस आ रहा हो सकता है, परन्तु यह विचार उस वक्त निर्मूल साबित हुआ जब उससे कुल दस फीट दूर रह जाने के बावजूद एम्बेसेडर की रफ्तार में रत्ती-भर फर्क न आया।
वह तेज रफ्तार से आ रही गाड़ी के ठीक सामने खड़ा था। बिजली की-सी तेजी से मिक्की के जेहन में विचार कौंधा कि एम्बेसेडर का ड्राइवर मुझे कुचलकर मार डालना चाहता है—इस विचार के साथ मिक्की के जिस्म में स्वयं बिजली भर गई। रबड़ के बबुए की तरह वह हवा में लहराया।
अभी हवा में ही था कि एम्बेसेडर सांय के साथ उस स्थान से गुजर गई, जहां वह मुश्किल से एक पल पहले खड़ा था।
मौत का खौफ बड़ा बलवान होता है।
तभी तो—
इस बार फुटपाथ पर टकराने के तुरन्त बाद मिक्की उछलकर खड़ा हो गया, दृष्टि निरन्तर दूर होती जा रही एम्बेसेडर के पिछले हिस्से पर स्थिर थी।
मिक्की को लग रहा था कि वह पुनः टर्न होगी।
मगर।
इस बार ऐसा न हुआ।
दूर होते-होते एम्बेसेडर उसकी आंखों से ओझल हो गई, मगर उस कार के ड्राइवर का चेहरा अब भी मिक्की की आंखों के सामने चकरा रहा था।
मस्तिष्क फिरकनी के समान घूमने लगा, मौत का खौफ गायब होते ही तन पर बने जख्मों का अहसास हुआ और फिर लाख कोशिश के बावजूद वह स्वयं को बेहोश होने से न रोक सका।
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