RE: अन्तर्वासना - मोल की एक औरत
तालाब में नहाने वाली माला को गुशलखाने में नहाना थोडा अजीब तो लगा लेकिन अच्छा भी खूब लगा. ताज़ा साफ पानी और खुसबूदार साबुन. ऐसा साबुन माला ने आज तक देखा ही नही था. देर तक तो उस साबुन की खुसबू ही सूंघती रही. तब जाकर नहाई. नहाकर जैसे ही कमरे में लौटी तो जमुना ने उसको ठीक से सजा संवार दिया. बालों में लगाने का तेल भी माला को बहुत अच्छा और खुसबूदार लगा. अपने घर से तो यहाँ की हर चीज निराली और अच्छी लग रही थी.
सज संवर कर माला बहुत खूबसूरत लग रही थी. शायद अच्छे कपड़ों और साज सुंगार के विना एक औरत की सुन्दरता अधूरी ही रहती है. अब माला को देख कोई नही कह सकता था कि ये वही माला है जो आज से एक दिन पहले थी. शायद गरीब लडकियों की सुन्दरता मैले कपड़ों में दब कर रह जाती है. शायद वो ठीक से नहा धो नही पाती इसलिए उनका रंग भी उतना नही निखरता जितना अच्छे घरों की लडकियों का होता है. सावित्री देवी भी माला को देखती ही रह गयीं.
वो अगर उसकी जाति को भूल जाएँ तो माला में अपनी बहू के हिसाब से उन्हें रत्ती भर भी कमी नही दिखती थी. अगर वे दीया लेकर भी ढूंढने लगतीं तो भी अपने लडके के लिए इतनी संदर और कम उम्र की लडकी उन्हें न मिलती.
थोड़ी देर में गुल्लन और जमुना घर से विदा हो चले गये. राणाजी अपने कमरे में आये तो माला को देख देखते ही रह गये. माला की खूबसूरती उन्हें आकर्षित किये जा रही थी. मन करता था उसे अपने गले से लगा लें.
इतने में सावित्री देवी कमरे में आ पहुंची और राणाजी से बोली, “बेटा खाना तैयार हो चुका है. अब तुम यहीं खाओगे या दूसरे कमरे में?"
राणाजी ने माला की तरफ देखा फिर माँ से बोले, "माँ मैं यही खा लूँगा.”
सावित्री देवी ने माला की तरफ देख कहा, “बहू तुम मेरे साथ आओ."
माला विना कुछ कहे सावित्री देवी के साथ बाहर चली गयी. थोड़ी देर में ही दोनों वापस आ पहुँची. माला के साथ साथ सावित्री देवी के हाथ में खाने की थाली लग रही थी. माला अपनी थाली ले खड़ी थी. सावित्री देवी ने अपने हाथों वाली थाली अपने बेटे के आगे रख दी और माला से बोली, “बहू तुम भी खाना खा लो.” __
माला कल दोपहर से खाली पेट थी. उसने एक बार भी न नही कहा. थाली ले जमीन पर बैठ गयी. राणाजी ने उसे टोक कर कहा, "माला. देखो वो आसन ले लो उसपर बैठ आराम से खा लो." माला ने बगल में पड़ा आसन लिया और बैठ गयी. उसने एक भी बार सावित्री देवी या राणाजी की तरफ न देखा. बस बैठते ही खाना खाने लग गयी. गोभी आलू की सब्जी, परांठा, आम का आचार और पुदीने का रायता. माला ने आज तक ऐसा सब्जी और भोजन नही खाया था. वो तब तक खाती रही जब तक उसका पेट पूरी तरह से भर न गया.
राणाजी खाना खाते समय बार बार उसे देखते और माँ की तरफ देख मुस्कुरा देते. सावित्री देवी भी अपनी नई बहू को देख अचरज करतीं थीं. पूरा खाना खत्म कर माला ने अपने आसपास देखा. माला के मुंह पर भी खाना में लग गया था.
मुंह पर थोड़ी सब्जी अब भी चिपक रही थी. जिसे देख राणाजी को जोरदार हंसी आ गयी. सावित्री देवी ने भी अपना मुंह पल्लू से छिपा लिया. शायद उन्हें भी उस लडकी पर हंसी आ रही थी लेकिन माला वावलों की तरह दोनों के मुंह की तरफ देखती रह गयी.
इसके बाद सावित्री देवी माला को प्लेट सहित अपने साथ ले गयीं और उसके हाथ मुंह धुलवा वापस कमरे में भेज दिया. उसके पहुंचते ही राणाजी ने मुस्कुराते हुए पूंछा, “यहाँ का खाना अच्छा लगा माला या तुम्हारे यहाँ का अच्छा होता था?"
माला बड़ी ख़ुशी से बोली, "नही यहाँ का खाना बहुत अच्छा था. मैने आज तक ऐसा खाना खाया ही नहीं था. आज पहली बार इतना स्वादिष्ट खाना खाया. क्या रोज ऐसा ही खाना बनता है आपके यहाँ?"
राणाजी माला के बावलेपन पर थोडा मुस्कुराये और बोले, “हां. यहाँ लगभग रोज ऐसा ही खाना बनता है. और न भी बने तब भी तुम्हें जो अच्छा लगे तो यही बनबा लिया करना."
माला ने खुश हो हां में सर हिला दिया और बोली, “आप लोग कितने अच्छे हैं. मेरे माँ बाप से बहुत अच्छे.”
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