RE: अन्तर्वासना - मोल की एक औरत
मैं यहाँ आई थी तो पहली बार पलंग पर सोयी थी. पलंग के गुदगुदे गद्दे पर सोने में डर सा लगता था. शुरुआत के दिनों में मैंने पेट में जगह होने से भी ज्यादा खाना खाया. अपने घर में मुझपर दो शूट थे और उनमे से एक फटा पुराना सा था. सिर्फ एक शूट ऐसा था जिसे मैं पहन कर बाहर निकल सकती थी और ये दोनों ही शूट मेरी बड़ी बहनें जाते वक्त घर पर छोड़ गयीं थी. जब यहाँ आई तो चारों तरफ साड़ियों से अलमारी भरी पड़ी थी. ऐसी साड़ियाँ तो मैने अपनी आँखों से भी नही देखीं थीं जिन्हें आज में अपनी मर्जी से पहन और उतार सकती हूँ. मेरे मन में जब भी आता है मैं खाना खाती हूँ. मन में आता है तब चाय पीती हूँ. जब में गर्भवती हुई तो मेरी सास ने मुझे अपने जिन्दा होने के वक्त मेवा लाकर दिए.
इससे पहले मैंने मेवा की शक्ल तक नही देखी थी. खाने में बहुत मीठे और अच्छे भी लगे. अब तुम अपने को मेरी जगह रख कर देखो और सोचो. तुम होते तो फिर उस जगह लौटकर जाते. मैं तो चाहकर भी फिर से उस जगह नही जाना चाहती. मैं फिर से उस भुखमरी में अपने कदम रखने को तैयार नही हूँ. और हर मेरी जैसी लडकी की यही हालत होती है.
__ कोई भी लडकी अच्छी जगह पहुंच वापस नही आना चाहती. वो फिर से उसी तरह की जिन्दगी जीना नही चाहती जो उसने मर मर के जी थी. अपने घर लौटने का कोई एक ऐसा कारण नही मिलता जिससे फिर से वहां जाने का मन करे. माँ बाप भी नहीं चाहते कि उनकी बेटी फिर से उनके पास आये और उनके खाने में अपना हिस्सा मांग उनके पेटों को भूखा रख दे. जिस दिन मेरी शादी होकर आई थी उस दिन घर में चीनी और चाय का डब्बा पूरी तरह खाली था. इन दोनों लोगों को पानी के अलावा कुछ न मिल पाया. मैं भी दोपहर की भूखी थी और शादी हो रात तक यहाँ आ पहुंची. अब तुम सोचो क्या शादियाँ इसी तरह होती हैं? क्या जो लड़का अपनी ससुराल जाता है उसे चाय तक की नही पूंछी जाती?
मेरे आने के बाद वहां की स्थिति थोड़ी सुधर गयी होगी. एक तो मेरे बाँट का खाना बच जाता होगा. दूसरा जो पैसा मेरे बदले मेरे घरवालों को मिला है उससे उन्हें अपने कर्जे और घर खर्च में मदद मिली होगी. शायद इस तरह मैं अपने माँ बाप के लिए कुछ कर सकी. और मेरे माँ बाप को भी मुझे पालने के बदले कुछ मिल गया. उन्हें लगा होगा कि उनकी बेटी भी उनके लिए कुछ करके गयी है. बस यही सब सोच के मन बहल जाता है. न तो लडकी लौट कर जाती है और न माँ बाप कभी उन्हें बुलाते हैं."
मानिक की आँखों में माला की दुःख भरी औरत गाथा सुन आंसू आ रहे थे. माला भी भीगी आँखों से उसे देखे जा रही थी. उसे आज पहली बार कोई ऐसा आदमी मिला था जिसने उसकी जिन्दगी को जानना चाहा था. वरना लोगों को क्या पड़ी जो जानें और मानिक तो इन बातों को सुन रो भी रहा था. शायद वो माला के मन का दर्द समझता जा रहा था. माला इस बात से उसकी एहसानमंद सी हो गयी. लगा कि मानिक उसका अपना सा है. उसका दुःख सुख का साथी है जो उसकी बातों को सुन दुखी भी हो रहा है.
माला ने आंसू पोंछे और बोली, “अच्छा मानिक तुम अब हमारे पास आया करोगे या नही? कभी कभार आ जाया करो तो हमारा भी मन लग जायेगा. यहाँ तो वैसे भी कोई बात करने तक को नही मिलता है ऊपर से इतना बड़ा घर जो ठहरा." ___
मानिक ने आंसू पोंछे और थोडा मुस्कुराता हुआ बोला, "मन तो करता है आऊँ लेकिन फिर कोई कुछ कहने न लगे इसलिए सोचता हूँ कि न आने में ही भलाई है. बेकार में आपके लिए भी कोई नई परेशानी खड़ी हो जाएगी?"
माला सोचते हुए बोली, “बात तो सही कह रहे हो लेकिन तुम दोपहर में आ जाया करो. तब हमारे यहाँ कोई नही होता. न ये ही घर पर होते हैं और महरी भी काम कर चली जाती है. अब देखों तुम इस वक्त आये हो तो घर पर कोई नही है.
इसी समय पर तुम आ जाया करो. सच कहती हूँ तुम ही अभी तक ऐसे आये हो जो हमारी बात को सुन कर समझते हो. वरना न तो कोई हमारे पास आता है और आ भी जाए तो हमारी बात को सुनने में उसे कोई आनंद नहीं आता."
मानिक ने माला की बात को समझ कर हाँ में सर हिलाते हुए कहा, “तो फिर मैं पढने के बाद आ जाया करूँगा. क्योंकि में दोपहर में स्कूल से लौटता हूँ, लेकिन रोजाना में सिर्फ एकाध घंटे के लिए ही आ सकता हूँ, क्योंकि घरवाले भी मुझे सारा दिन घर से बाहर नही रहने दे सकते."
माला खुश होती हुई बोली, “अरे तो ये क्या कम है कि तुम एकाध घंटे के लिए आ जाओगे. बस इतना ही मेरे लिए काफी है लेकिन आना जरुर. भूल गये तो मैं रूठ जाया करूँगी और फिर तुमसे बोलूंगी भी नही."
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