RE: अन्तर्वासना - मोल की एक औरत
गुल्लन मियां की नजरें शर्म से झुकी हुईं थी. माला को बेवकूफ समझने की गलती कर बैठे गुल्लन नही जानते कि एक स्त्री कितनी भी बेवकूफ क्यों न हो लेकिन उसके त्याग और समर्पण की भावना हमेशा उसमें बनी रहती है. वो भूल गये थे कि अपनी जिन्दगी को दांव पर लगाकर दूसरे का भला करना ही एक स्त्री होना होता है. उन्हें यह भी ध्यान न रहा कि वो खुद एक स्त्री की कोख से जन्में हुए हैं और इस वक्त वो अपनी जीवन संगिनी के साथ रहते हैं जो उनके हर सुख दुःख में उनका साथ निस्वार्थ हो देती है और वो खुद भी एक स्त्री है. जैसे माला एक स्त्री है.
गुल्लन ग्लानी की लम्बी साँस ले उठ खड़े हुए और माला की तरफ हाथ जोड़ते हुए बोले, “बहन ये तुम्हारा एहसान में जिन्दगी भर न भूलूंगा. अब तुम अपने कपड़े पहन लो. मैं जा रहा हूँ. मेरी गलती को माफ़ कर सको तो कर देना."
यह कह गुल्लन कमरे से बाहर निकल गये. माला फिर से सिसक पड़ी. उसे अपनी माँ की याद आ गयी जो दुःख के हर वक्त में उसका साथ देती थी लेकिन आज माँ का साया भी उसके साथ न था. माँ की यादों से तो सारा दिल भरा पड़ा था. दिल का कोई ऐसा कोना खाली नही था जिसमे इस वक्त माँ से मिलने की तडप न थी.
कितनी अजीब जिन्दगी थी इस बस्ती की लडकियों की और कुछ वैसी ही जिन्दगी उन लडकियों के माँ बाप की. लोग उन माँ बाप को अपनी लडकियों को पैसे ले बेचने पर धिक्कारते थे. लेकिन वो खुद उन लोगों के लिए कुछ नही करना चाहते. न ही खुद चार दिन उस बस्ती में रह उनके जीवन को जीना चाहते हैं. भूख से मरते माँ बाप. हर रोज इकाई और दहाई के आंकड़े में बिकती लडकियाँ इस वेवश जिन्दगी को कैसे जीती थीं ये कोई जानना नही चाहता.
एक माँ या बाप अपनी बेटी को पैसे ले किस हालत में बेच देता है ये कोई जानना नही चाहता. सब उन्हें धिक्कारते थे. सब को 'सोशल वर्कर' बनने की पड़ी थी. चार गालियां किसी गरीब को दी और उसी दिन अखबार में उनका फोटो छप गया. रातोंरात वे 'सामाजिक कार्यकर्ता बन गये. न तो उन्होंने उनकी गरीबी और भुखमरी देखी और न ही उनकी बेरोजगारी.
बस उन्हें ये पता है कि लडकियों को बेचा नही जाना चाहिए. उन्हें नही पता फिर लडकियों का इस बस्ती वाले क्या करेंगे? कौन उनकी शादी अच्छी जगह करने के लिए दहेज का इंतजाम करेगा? क्योंकि वे तो सामाजिक कार्यकर्ता हैं उन्हें इन बातों से क्या मतलब?
दोपहर हो चुकी थी. माला को याद आया कि दोपहर में उससे मानिक मिलने आएगा. मानिक के आने के ख्याल से मन भूल गया कि अभी थोड़ी देर पहले ही वो किस हालत से गुजरी है. चंचल निश्छल मन की ये लडकी उस निस्वार्थ प्रेम की तलाश में अपने मन को उत्तेजित किये जा रही थी. भागकर अलमारी से साड़ी निकाल पहनने लगी. होठों पर खुशी थी और हल्की आवाज में कोई भोजपुरी भाषा का मधुर गाना. मन के साथ साथ देह भी झूम रही थी. वो देह जो चंद मिनटों पहले तक एक पुरुष को देख काँप रही थी. वही देह किसी दूसरे पुरुष के खयाल से झूम रही थी. एक वो भी पुरुष था और एक ये भी पुरुष था. वो पुरुष समाज को कलंकित कर चुका था लेकिन ये लड़का उस समाज को फिर से ऊपर उठाये जा रहा था.
माला लाल काली सी लगने वाली साड़ी अपने सांवले सलोने बदन पर लपेट चुकी थी. होठों पर लाली की रंगत. आँखों में गाँव की तरह बड़ा बड़ा काजल.सर पर साड़ी का पल्लू. ये सब चीजें करने के बाद दर्पण में अपने को निहारा और झट से झूमती हुई द्वार पर पहुंच गयी. चंचल हिरनी ने इधर उधर निहारा. द्वार पर तो कोई नही था लेकिन सामने की सडक पर मानिक पेड़ से टिका खड़ा उसे ही देखे जा रहा था.
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