RE: अन्तर्वासना - मोल की एक औरत
भाग -8
बल्ली ने नई दुल्हन लाने से पहले भोले बाबा को गंगाजल चढ़ाने के लिए बोल दिया था. बल्ली का मानना था कि भोलेनाथ से मन्नत मांगने के कारण ही वो नई दुल्हन ला पाया था. फिर उनपर गंगाजल क्यों न चढ़ाता?
ये गंगाजल कोई वो गंगाजल नही चढना था जो घर पर रखा होता है. ये गंगाजल तो सीधा गंगाजी से भर के लाना था. जो शिवरात्रि को लाया जाता है. उसी दिन लोग कावड भी लेकर आते हैं. बल्ली के गाँव से गंगाजी की दूरी अस्सी किलोमीटर की थी. जहाँ से पैदल घर तक आना पड़ता था.
दूसरे दिन शिवरात्रि थी. बल्ली ने एकदिन पहले ही तैयारी कर ली लेकिन काली उसके साथ जाने की जिद कर रही थी. वो बल्ली को एक पल भी अपने से दूर नही भेजना चाहती थी. बल्ली का मन काली को साथ ले जाने के लिए नही करता था परन्तु काली का प्यार भरा निवेदन टाल भी तो नही सकता था. काली से बोला, "ठीक है काली तू जिद करती है तो चली चल लेकिन पैदल न चल सकी तो वाहन में बैठ कर आना पड़ेगा?”
काली अपने पति बल्ली के इश्क में अंधी थी. वावली को ये भी खबर नही थी कि अस्सी किलोमीटर पैदल कैसे चलेगी. लेकिन ये मेहनती काली अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहती थी, पति को इतना प्यार कर बैठी जैसे वो उसकी बचपन की प्रेमिका हो और बल्ली ने भी काली के आने से लेकर आज तक उसपर हाथ नहीं उठाया था.
कारण दो थे. एक तो काली ने कभी गलती का मौका दिया ही नही और थोड़ी बहुत गलती हो भी जाती तो उसे पहली बीबी की याद आ जाती थी. दूसरा काली का उसके प्रति असीम प्रेम भी तो था जो ये सब करने के लिए रोकता था. सच कहा जाय तो बल्ली को भी काली से बेपनाह इश्क हो गया था.
दूसरे दिन काली को ले बल्ली गंगाजल की कावड लेने चल दिया. कावड लेने वाले लोग इधर से गाँव के ट्रैक्टर में बैठकर जाते थे और उधर से पैदल आते थे. बल्ली अपनी प्यारी सी बीबी काली को ले गाँव के ही ट्रैक्टर में बैठ गया.
गाँव के मसखरे लडके काली को अपनी 'भौजी' बना पूरे रास्ते मजाक करते गये. काली भी पूरे रस्ते हसती खिलखिलाती रही. बल्ली को भी काली को खुश देख आनंद आ रहा था. मसखरे लडके तो काली का मुंह भी देखना चाहते थे. उन्होंने अपनी मुंहबोली 'भौजी' काली से लाख बार कहा लेकिन काली ने एक भी बार अपना धुंघट उठा उनको अपना मुंह न दिखाया.
ट्रैक्टर सब लोगों को गंगाजी के किनारे उतार वापस चला आया, क्योंकि उधर से लोगों को पैदल ही आना होता था. हालांकि कावड़ियों को ढोने के लिए संस्थाए फ्री में बाहन भी चलाती थी. बल्ली और काली दोनों मिलकर गंगा नहाये. खाना खाया. कावड सजा कर पूजा भी की.
शाम होने को आ रही थी. ये समय कावड़ियों के घर जाने का समय होता था. काली और बल्ली भी चल पड़े. पैरों में कावड़ियों वाली पायलें 'छन्न छन्न' करती जा रहीं थीं. चारो तरफ 'जय भोले की जय भोले की होती जा रही थी.
काली और बल्ली दोनों के पैर भी छनक छनक उठ रहे थे लेकिन दस बारह किलोमीटर चलने के बाद काली की हालत ढीली पड़ गयी. पहले वो इतनी दूर पैदल चली ही नही थी और उसे यह भी नहीं पता था कि अस्सी किलोमीटर कितने होते हैं. वो तो अस्सी तक गिनती नही जानती थी.
अब पढ़ी लिखी होती तो गिनती जानती. वो तो ये जानती थी कि अस्सी किलोमीटर थोड़ी बहुत दूर होती होगी लेकिन उसने बल्ली से ये न कहा कि वो थक गयी हैं परन्तु बल्ली पूरा बल्ली था. उसने अपनी प्रियतमा के चेहरे पर पीड़ा की लकीरें देख ली थीं..
बल्ली कंधे पर कावड रखा हुआ था. बोला, “काली तू थक तो नही गयी कहीं? थक गयी हो तो बता देना तुझे किसी वाहन में बिठा दूंगा." काली का मन तो नही होता था कि किसी वाहन में बैठे लेकिन वो सचमुच में थक गयी थी. टांगें सूज सी गयीं थी. ऊपर से गर्भवती भी थी लेकिन ये अच्छा था कि गर्भ शुरूआती था. बोली, “हाँ थक तो गयी हूँ लेकिन तुम्हें छोड़ कर जाने का मन नही करता. मैं अकेले वाहन में नही बैलूंगी. तुम भी बैठ जाओ मेरे साथ."
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