अन्तर्वासना - मोल की एक औरत
07-03-2020, 01:27 PM,
#60
RE: अन्तर्वासना - मोल की एक औरत
भाग - 11
मानिक ने देखा कि शाम के अँधेरे ने उसके राजगढ़ी गाँव को अपने आगोश में ले लिया है तो घर पर अपने पिता से विना कुछ कहे चुपचाप घर से निकल आया. उसने घर से दो सौ रूपये के करीब भी निकाल लिए थे. जिससे सफर में कोई दिक्कत न हो.

मानिक सीधा राणाजी के घर आकर रुका. राणाजी कमरे में इधर से उधर घूमते हुए उसी का इन्तजार कर रहे थे. उन्होंने जैसे ही मानिक को देखा वैसे ही अपने पास बुला कर बिठा लिया और बोले, “मानिक तुम तैयार हो जाने के लिए?" मानिक ने हाँ में सर हिला दिया.

राणाजी ने तुरंत माला को आवाज दी. माला लगभग भागती हुई राणाजी के कमरे में आ पहुंची. राणाजी ने माला को देखते ही कहा, "माला तुम फटाफट तैयार हो जाओ. एक बैग में अपने पहनने के जितने कपड़े रखना चाहो रख लो लेकिन ये काम बहुत जल्दी करो. रात होने पर सफर में खतरा रहेगा. जाओ अब जल्दी से.”

माला के कदम डगमगा रहे थे. मन बहक रहा था. दिमाग सुन्न था लेकिन राणाजी के कहे अनुसार करने लगी.

थोड़ी ही देर में माला ने रोज़ पहनने वाली साड़ियाँ और कपड़े एक बैग में रख लिए और राणाजी के कमरे में आ खड़ी हो गयी. आँखों में डर था लेकिन शरीर ठीक ठाक काम कर रहा था. राणाजी चेहरे से वेशक न दिखा रहे हों लेकिन दिल उनका फटा जा रहा था. मन करता था कि रोने लगें या कहीं जा चुपचाप बैठ जाए और सिर्फ अपनी माँ को याद करते रहें. माँ की याद बुरे वक्त में उन्हें सहारा देती थी.

राणाजी ने माला को दरवाजे पर खड़ा देखा तो थोड़े हिल गये लेकिन यह सब तो उन्हें करना ही था. माला के हाथ में लग रहे बैग में बहुत कम कपड़े थे. राणाजी ने अधीर हो माला से पूछा, “माला कितनी साड़ियाँ रखी तुमने इस बैग में?" ___

माला धीरे से बोली, “तीन साड़ियाँ.”

राणाजी उसकी तरफ आते हुए बोले, “लाओ बैग मुझे दो. तुम भी न जाने कब तक वावली रहोगी."

माला ने आश्चर्य के साथ बैग राणाजी की तरफ बढ़ा दिया. राणाजी बैग ले माला के कमरे की तरफ बढ़ गये. कमरे में बहुत बढ़िया बढिया साड़ियाँ रखी थीं. जो राणाजी की माँ ने अपनी बहू के लिए ले ले कर रख लीं थीं. जब राणाजी की शादी भी नही हुई थी तब से उनकी माँ अपनी होने वाली बहू के लिए साड़ियाँ ले ले कर रख लेती थीं. इससे उनके दिन में राणाजी की शादी न होने से हो रहा मलाल कम हो जाता था.

राणाजी ने बैग में चार पांच और साड़ियाँ रख दीं. इसके बाद अपने कमरे में आ पहुंचे जहाँ माला और मानिक खड़े गुए थे. माला को राणाजी का ये अजीब सा व्यवहार बड़ा अजीब महसूस हो रहा था. उसकी समझ न आता था कि राणाजी ये सब क्यों कर रहे हैं. बोली, "अरे इतनी साड़ियाँ क्यों रख रहे हैं? मुझसे इतनी पहनी भी नही जाएँगी.

राणाजी ने अपनी पथरायी आँखों से माला की तरफ देखा और बोले, "तो यहाँ ही कौन पहनेगा? ये सब तुम्हारे लिए ही तो थी और अब तुम्ही...अच्छा लो अपना बैग पकड़ो में अपने जानने वाले के लिए चिट्ठी लिख दूं."

इतना कह राणाजी ने माला को कपड़ों का बैग पकड़ा दिया. माला भौचक्की सी उनको देखती रह गयी. पता नही माला को क्यूँ राणाजी की इस साड़ी वाली बात में बहुत दर्द नजर आया था. राणाजी ने फटाफट एक पेन और कागज लिया और अपने परिचित के नाम चिट्ठी लिख दी. साथ ही उस पर उसका पता भी लिख दिया. राणाजी मानिक को वो चिट्ठी देते हुए बोले, "देखो मानिक इसे सम्हाल कर रखना. मैंने इस चिट्ठी पर उस आदमी का पता लिख दिया है. बस से मथुरा तक पहुंचना और वहां से टेम्पो या रिक्शा कर इस पते पर पहुंच जाना."

मानिक ने हाथ में चिट्ठी ले ली. राणाजी फिर से बोले, "अच्छा मानिक तुम लोगों को थोड़े रुपयों की भी जरूरत होगी तो मैं उसका भी इंतजाम किये देता हूँ.” यह कह राणाजी मुड़ने को हुए तो मानिक बोल पड़ा, "चाचा मेरे पास रूपये हैं थोड़े से."

राणाजी ने रुक कर उसे देख पूंछा, “कितने? कितने रूपये हैं तुम्हारे पास?"

मानिक आतुरता से बोला, “करीब दो सौ रूपये होंगे.”

राणाजी मुस्कुराते हुए बोले, “बेटा इतने से तो हफ्ता भर भी काटना मुश्किल पड़ जाएगा. मैं थोड़े रूपये और दिए देता हूँ तुम्हें.”

राणाजी ने अपने सन्दूक से एक छोटा सा थैला निकाला और उसमे से सौ सौ के नोट गिनते हुए मानिक की तरफ बढ़ा दिए. बोले, “लो ये दो हजार रूपये हैं. अभी मेरे पास इतने ही हैं लेकिन जल्द ही मैं कुछ रूपये तुम्हें मनीआर्डर कर वहीं भिजवा दूंगा. शायद इन रुपयों के खत्म होने से पहले ही.”

मानिक ने दो हजार रूपये पहली बार अपने हाथ में पकड़े थे. उसने कांपते हाथों से रूपये जेब में रख लिए.
राणाजी का थैला रुपयों से खाली होता देख माला बीच में बोल पड़ी, “आप थोड़े से रूपये अपने पास भी रख लीजिये. यहाँ जरूरत पड़ी तो? वैसे कुछ रूपये पलंग के सिराहने रखे हुए हैं. अगर आपको जरूरत पड़े तो उन्हें भी निकाल लीजियेगा.”

राणाजी ने हैरत से पूंछा, “अरे पलंग के सिरहाने किसने रूपये रख दिए?"

माला थोडा झिझकते हुए बोली, “वो जब में यहाँ आई थी तब माँजी ने मुझे दिए थेन. पहली बार मुंह दिखाई के वक्त."

राणाजी ने अधीरता के साथ माला से कहा, "निकालो कहाँ रखे हैं वो रूपये?"

माला ने एक झटके में पलंग के सिरहाने गद्दे के नीचे हाथ डाला और सौ सौ के दो नोट बाहर निकाल लिए. साथ में एक एक रूपये का सिक्का भी था.

सावित्री देवी के दिए शगुन के दो सौ एक रूपये थे. ___ माला ने राणाजी की तरफ पैसों वाला हाथ बढ़ा दिया. राणाजी ने पैसों की तरफ देखा तक नही. बोले, “ये पैसे तुम अपने पास रखलो और हो सके तो इन्हें कभी खर्च न करना. इन्हें हमेशा अपने पास ही रखना. ये पैसे तुम्हें माँ ने दिए थे न. ये पैसे तुम्हारे लिए एक आशीर्वाद की तरह हैं. जो जिन्दगी भर तुम्हें मुसीबतों से बचायेंगे."

माला के साथ साथ मानिक और राणाजी भी भावुक हो उठे. सबकी आँखे नम हो गयीं.राणाजी इस वक्त किसी तरह की भावुकता नहीं चाहते थे. वो एक झटके के साथ उठ खड़े हुए और बोले, "अच्छा चलो तुम लोग अब वैसे ही देर हो रही है."

सब लोगों के शरीर में सिरहन दौड़ गयी. माला के पैर तो खड़े खड़े ही काँप रहे थे. तीनों लोग राणाजी के कमरे से बाहर आ गये. फिर घर से बाहर द्वार पर आ पहुंचे. राणाजी ने घर के बाहर लटक रहा ताला घर के मुख्य दरवाजे पर लगा दिया. आज पहली बार राणाजी अपने घर पर ताला लगा रहे थे. आज से पहले घर में कोई न कोई हरवक्त मौजूद रहता था.

फिर राणाजी मानिक और माला की तरफ मुड़ते हुए बोले, “देखो बहुत सावधानी से यहाँ से गाँव बाहर तक निकलना है. उसके बाद इतनी दिक्कत नही होगी. मुख्य सडक पर तो तांगा या कोई जीप बगैरह मिल जाएगी." राणाजी इतनी बात कह चुप भी न हो पाए थे कि उनकी नजर माला के चेहरे पर आकर रुक गयी. उन्हें माला के चेहरे से सारे गहने गायब मिले.
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