RE: raj sharma story कामलीला
मैंने उससे स्क्रू ड्राइवर माँगा और उसे खोल कर दुरुस्त करने लगा।
‘वैसे आप खुद को इतना अंडर एस्टीमेट क्यों करते हैं?’ उसने शायद पहली बार मुझे गौर से देखते हुए कहा।
‘कहाँ? नहीं तो। मैं जानता हूँ कि मैं क्या हूँ और मैं खामख्वाह की कल्पनाएं नहीं करता, न भ्रम पालता हूँ और इसका एक फायदा यह होता है कि मैं अपनी सीमायें नहीं लांघता कि कभी किसी की दुत्कार सहनी पड़े। अब जैसे आपने कभी मुझे दोस्त बनाया होता तो मैं हम दोनों के बीच का फर्क जानते समझते कभी अपनी सीमायें नहीं लांघता और न आपके हाथ से बढ़ कर गले तक पहुँचता।’
यह बात कहने के लिए मुझे बड़ी हिम्मत करनी पड़ी थी।
इस बार वो कुछ बोली नहीं, बस गहरी निगाहों से मुझे देखते रही।
मैंने प्लग सही किया और सॉकेट में लगा दिया, सप्लाई चालू हुई तो राऊटर में भी लाइन आ गई।
उसने लैप्पी के वाई फाई पे नज़र डाली, नेट चालू हो गया था।
‘तो मैं अब चलूँ?’
‘खाना खा के जाने का इरादा हो तो कहिये बना दूँ।’ कहते हुए वो इतने दिलकश अंदाज़ में मुस्कराई थी कि दिल धड़क कर रह गया था।
मेरे मुंह से बोल न फूटा तो मैं मुड़ कर चल पड़ा।
वो मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आई थी और जब मुझे बाहर करके वापस दरवाज़ा बंद कर रही थी तो एक बात बोली ‘सोचूंगी।’
‘किस बारे में?’
पर जवाब न मिला और दरवाज़ा बंद हो गया।
उस रात मुझे बड़ी देर तक नींद नहीं आई, जितनी भी बात हुई अनपेक्षित थी और शांत मन में हलचल मचाने के लिए काफी थी।
उसकी आखिरी बात ‘सोचूंगी’ किसी तरह का साइन थी लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसका मकसद क्या था।
बहरहाल मैं उतरती रात में जाकर सो पाया।
सुबह उठा तो अजीब सी कैफियत थी… आज सोमवार था और काम का दिन था।
जैसे तैसे दस बजे जाने के लिए तैयार हुआ ही था कि फोन बज उठा।
कोई नया नंबर था लेकिन जब उठाया तो दिल की धड़कने बढ़ गईं।
‘निकल गए या अभी घर पे हो?’ आम तौर पर एकदम किसी की आवाज़ को पहचानना आसान नहीं होता लेकिन गौसिया की आवाज़ कुछ इस किस्म की थी कि लाखों नहीं तो हज़ारों में ज़रूर पहचानी जा सकती थी।
‘घर पे हूँ… निकलने वाला हूँ, बताओ?’
‘कोई बहाना मार के छुट्टी कर लो और इसी वक़्त मेरी छत पे आओ। दरवाज़ा खुला है, सीधे मेरे कमरे में आओ।’
‘इस वक़्त?’ मेरा दिल जैसे उछल के हलक में आ फंसा, धड़कनें बेतरतीब हो गईं।
‘हाँ! वैसे छत पे कोई नज़र नहीं रखे रहता लेकिन फिर भी दिखावे के लिए मॉडम वाला बॉक्स खोलकर चेक कर लेना कि लगे कुछ कर रहे हो। आस पास वाले जानते ही हैं कि क्या काम करते हो।’
फोन कट हो गया।
यह मेरी कल्पना से भी परे था, मेरे गुमान में भी नहीं था कि मुझे कभी ऐसा मौका मिलेगा।
पता नहीं क्या है उसके मन में?
बहरहाल मैंने ऑफिस फोन करके तबियत ख़राब होने का बहाना मारा और सीढ़ी से होकर ऊपरी छत पर आ गया।
मैंने आसपास नज़र दौड़ाई लेकिन कहीं कोई ऐसा नहीं दिखा जो इधर देख रहा हो। दोनों छतों के बीच की चार फुट की दीवार फांदी और उसकी छत पे पहुँच कर मॉडम वाला बॉक्स खोलकर ऐसे चेक करने लगा जैसे कुछ खराबी सही कर रहा होऊँ।
फिर उसे बंद करके सीढ़ियों के दरवाज़े पे आया जो कि खुला हुआ था और उससे होकर नीचे आ गया।
नीचे दो कमरे थे जिनके बारे में मुझे पता था कि एक उसके भाइयों का था और एक उसका।
मैंने उसके कमरे के दरवाज़े को पुश किया तो वो खुलता चला गया।
और सामने का नज़ारा देख कर मेरी धड़कने रुकते रुकते बचीं।
वो हसीन बला सामने ही खड़ी थी… लेकिन किस रूप में??
उसके घने रेशमी बाल खुले हुए थे जो उसके चेहरे और कन्धों पे फैले हुए थे… गोरा खूबसूरत चेहरा कल की ही तरह बेपर्दा था और क़यामत खेज बात यह थी कि उसने कपड़े नहीं पहने हुए थे, उसने पूरे जिस्म पर सिर्फ एक शिफॉन का दुपट्टा लपेटा हुआ था, दुपट्टे से सीना, कमर, और जांघों तक इस अंदाज़ में कवर था कि आवरण होते हुए भी सबकुछ अनावृत था।
शिफॉन के हल्के आवरण के पीछे उसके मध्यम आकार के वक्ष अपने पूरे जलाल में नज़र आ रहे थे जिनके ऊपरी सिरों को दो इंच के हल्के भूरे दायरों ने घेरा हुआ था और जिनकी छोटी छोटी भूरी चोटियाँ सर उठाये जैसे मुझे ही ललकार रही थीं।
उनके नीचे पतली सी कमर थी जहाँ एक गहरा सा गढ्ढा नाभि के रूप में पेट पर नज़र आ रहा था और पेट की ढलान पर ढेर से बालों का आभास हो रहा था… वहाँ जो भी था, वे घने बाल उसे पूरी बाकायदगी से छुपाए हुए थे।
और जो आवरण रहित था वो भी क्या कम था- संगमरमर की तरह तराशा, दूध से धुला, मखमल सा मुलायम… उसकी पतली सुराहीदार गर्दन, उसके भरे गोल कंधे, उसकी सुडौल और गदराई हुई जांघें…
उसमें हर चीज़ ऐसी ही थी जिसे घंटों निहारा जा सकता था।
मेरा खुला हुआ मुंह सूख गया था और साँसें अस्तव्यस्त हो चुकी थीं, जबकि वो बड़े गौर से मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
‘कल तुम कह रहे थे न कि तुम अपनी सीमायें जानते हो। मैंने तुम्हें दोस्त बनाया होता तो तुम हम दोनों का फर्क जानते समझते और अपनी सीमाओं को देखते हुए कभी मेरे हाथ से बढ़ कर मेरे गले तक न पहुँचते।’
‘तो?’ मेरे मुंह से बस इतना निकल पाया।
‘तो चलो मैंने तुम्हें अपना दोस्त समझो कि बना लिया और मेरा दोस्ती वाला हाथ तुम्हारे हाथ में है। मैं देखना चाहती हूँ कि तुम मेरे गले तक पहुँचते हो या नहीं।’
ओह ! तो यह बात थी, मेरा इम्तेहान हो रहा था।
भले उसे देखते ही मेरी हालत खराब हो गई थी, पैंट में तम्बू सा बन गया था लेकिन मैं कोई नया नया जवान हुआ छोरा नहीं था जिसका अपनी भावनाओं पर कोई नियंत्रण ही न हो।
तीस पार कर चुका था और ज़माने की भाषा में समझदार और इतना परिपक्व तो हो ही चुका था कि ऐसी किसी स्थिति में खुद को नियंत्रण में रख सकूँ।
जब तक क्लियर नहीं था तब तक मेरी मनःस्थिति दूसरी थी लेकिन अब मेरा दिमाग बदल गया।
वो मेरे सामने टहलने लगी और यूँ उसके चलने से उसके स्पंजी वक्षों और नितम्बों में जो थिरकन हो रही थी वो भी कम खतरनाक नहीं थी लेकिन मेरे लिए यह परीक्षा की घड़ी थी।
मैंने उसकी तरफ से ध्यान हटा कर उस दूसरी लड़की के बारे में सोचने लगा जो कल पहली बार मुझे देख कर मुस्कराई थी।
वो भी मुझे इसी कमी का शिकार लगती थी कि उसके पास अपने उदगार व्यक्त करने के लिए शायद कोई नहीं था और वो इस अभाव में मन ही मन घुटती रहती थी जिसका असर उसके स्वाभाव में दिखता था।
देखने से ही तीस से ऊपर की लगती थी लेकिन ज़ाहिरी तौर पर ऐसा कोई साइन नहीं नज़र आता था जिससे यह पता चलता कि वह शादीशुदा है।
एक वजह यह भी हो सकती है उसके रूखे और चिड़चिड़े मिजाज़ की।
जो परिस्थिति मेरे समक्ष थी उसमें नियंत्रण का बेहतरीन तरीका यही था कि खुद को दिमागी तौर पर वहाँ से हटा कर कहीं और ले जाया जाए।
यानि मेरा शरीर वहीं था लेकिन दिमाग कहीं और भटक रहा था और वो मुझे पढ़ने की कोशिश में थी।
जब उसने मेरी पैंट में आया तनाव ख़त्म होते देखा, साँसों की बेतरतीबी दुरुस्त होते और चेहरे पर इत्मीनान झलकते देखा तो जैसे फैसला सुनाने पास आ गई।
‘मैंने बहुत बड़ा कदम उठाया था लेकिन जाने क्यों मुझे यकीन था कि तुम वैसे ही हो जैसे मैं सोचती हूँ।’ उसने मेरी आँखों में झांकते हुए कहा।
‘कैसा?’ अब मुस्कराने की बारी मेरी थी।
‘जाओ, क्रासिंग वाले पुल के नीचे इंतज़ार करो, मैं दस मिनट में वहाँ पहुँच रही हूँ।’
‘ओके… पर जाने से पहले मेरे एक सवाल का जवाब दे दो कि अगर मैं नियंत्रण खो बैठता तो?’
‘तो मैं चिल्ला पड़ती और नीचे से दादा दादी आ जाते और तुम पकड़े जाते। कौन मानता कि मैंने तुम्हें बुलाया था।’ कहते हुए उसने दरवाज़ा बंद कर लिया।
यानि जवां जोश, अधीरता और परिपक्वता में यह फर्क होता है।
मैंने बात जाने समझे बिना जल्दबाजी दिखाई होती तो गया था बारह के भाव।
इस अहसास के साथ कि मैंने परीक्षा पास कर ली थी।
ख़ुशी ख़ुशी मैं जैसे गया था वैसे ही वहाँ से निकला और बाइक से निशातगंज पुल के नीचे पहुँच कर उसकी प्रतीक्षा करने लगा।
वादे के मुताबिक वो दस मिनट में ही पहुँच गई, वैसी ही ढकी मुंदी थी जैसे हमेशा दिखती थी।
खुद से ही पास आई और बाइक पे बैठते हुए बोली- लोहिया पार्क चलो।
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