RE: raj sharma story कामलीला
अगला दिन इस हिसाब से अंतिम दिन था कि कल रविवार था और वह यूनिवर्सिटी का बहाना नहीं कर सकती थी तो आज ही आखिरी दिन था जो हम साथ घूम सकते थे।
आज वह यूनिवर्सिटी नहीं गई बल्कि ग्यारह बजे ही मुझ तक पहुँच गई।
पहली सुरक्षित जगह पाते ही नक़ाब से छुटकारा पाया और आज हमने जितना वक़्त मिला सिर्फ सैर सपाटा किया। पूरे लखनऊ की सड़कें नापीं… मड़ियांव से लेकर सदर तक, और दुबग्गा से लेकर चिनहट तक।
दोपहर के खाने के रूप में टेढ़ी पुलिया पर मुरादाबादी बिरयानी खाई और शाम को अकबरी गेट पर टुंडे के कबाब। कोई फिल्म, माल, पार्क का रुख किये बगैर सिर्फ राइडिंग करते शाम हो गई तो वापसी की राह ली।
आज रात नए रोमांच के रूप में उसने खुद को दुल्हन के रूप में सजाया और ऐसे खुद को पेश किया जैसे आज हमारी सुहागरात हो।
उसे यह अहसास अब बुरी तरह साल रहा था कि हमारे सफर का अब अंत हो चला है। वह कुछ ग़मगीन थी और ऐसे मौके पर खुद को मेरी दुल्हन के रूप में जी लेना चाहती थी।
एक आभासी दूल्हे के रूप में मुझे दूध भी पीने को मिला और मिठाई भी खाने को मिली।
आज हमने रोशनी बंद कर दी थी- उसकी इच्छा के मुताबिक।
बस ऐसे ही बातें करते, एक दूसरे को छूते सहलाते उत्तेजित होते रहे और जब दिमाग पर सेक्स हावी हो गया तो मैंने उसके कपड़े उतार दिए।
आज वह उस तरह सहयोग नहीं कर रही थी बल्कि खुद को एक शर्मीली दुल्हन के रूप में तसव्वुर कर रही थी जो पहली बार ऐसे हालात का सामना कर रही हो।
मैंने बची हुई मिठाई उसके पूरे जिस्म पर मल दी थी और खुद कुत्ते की तरह उसे चाटने लगा था।
उसके जिस्म का कोई ऐसा हिस्सा नहीं बचा था जिसे मिठाई और मेरी जीभ के स्पर्श से वंचित रहना पड़ा हो… और जो बची भी तो उसे मैं अपने लिंग पर मल कर उसके होंठों के पास ले आया।
थोड़ी शर्माहट, नखरे और हिचकिचाहट के बाद उसने मेरे लिंग को स्वीकार किया और उसे अपने मुंह में लेकर सारी मिठाई साफ़ कर दी।
इसके बाद मैंने उसे चित लिटाए हुए ही उसकी योनि से छेड़छाड़ शुरू की और जब वह कामोत्तेजना से तपने लगी तो उसकी टांगों के बीच और कूल्हों के पास बैठते हुए मैंने बड़े आराम से पीछे के रास्ते प्रवेश पा लिया और ऐन सुहागरात के स्टाइल में उसके ऊपर लद कर उसके बूब्स मसलते, चूसते हल्के हल्के धक्के लगाने लगा।
मूल सुहागरात और इस सुहागरात में फर्क यह था कि यहाँ वेजाइनल सेक्स के बजाय एनल सेक्स हो रहा था।
धीरे धीरे दोनों चरम पर पहुँच गए तो उसने तो मुझे दबोचते हुए अपने स्खलन को अंजाम दे दिया लेकिन मैं उसके मुंह के लालच में रुका रहा और निकालने से ऐन पहले एकदम लिंग बाहर निकाल कर उसे हाथ से पकड़े गौसिया के मुंह के पास ले आया।
हालांकि स्थिति को समझते हुए उसने फ़ौरन मुंह खोल दिया था लेकिन मैं लगभग छूट चुका था इसलिए पहली फुहार गाल को छूती बिस्तर पर गई, दूसरी गाल पर और तीसरी चौथी बची खुची उसके मुंह में जा सकी।
कुछ देर उसे मुंह में रखने के बाद उसने पास रखे अपने एक कॉटन के दुपट्टे पर उगल कर उसी से अपना मुंह पोंछ लिया, दुपट्टे से ही गाल और तकिए पर गिर वीर्य भी साफ़ कर दिया।
इसके बाद फिर हम थोड़ी देर लेटे कल के विषय में बाते करते रहे और जब बुखार वापस चढ़ा तो इस बार कल की बची हुई शराब थोड़ी अपने मुंह में लेकर उसे पिलाई और बाकी उसके जिस्म पर डाल कर एक बार फिर कुत्ते की तरह चाट चाट कर साफ़ कर दी।
इस चटाई से उत्तेजित होना स्वाभाविक था और फिर मैंने उंगली से योनिभेदन करते हुए उसे फिर लगभग चरम पर पहुंचा दिया, जब वह स्खलन के करीब पहुँच गई तब उसे घोड़ी बना के पीछे से घुसा दिया और सम्भोग करने लगा।
करीब पांच मिनट के बाद वह भी स्खलित हो गई और मेरा भी निकलने वाला हो गया तो मैंने इस बार ज्यादा नियंत्रण के साथ वक़्त से पहले उसे गौसिया के मुंह तक पहुंचा दिया और इस बार बाहर कुछ नहीं गिरा।
एक तो कम माल था दूसरे फ़ोर्स भी कम था जिससे वेस्टेज नहीं हुई और कुछ देर मुंह में रखने के बाद फिर उसने मुंह साफ़ कर लिया।
आखिरी रात ऐसे ही गुज़री लेकिन उसने मुझे जाने नहीं दिया और वही रोके रखा- यह कह कर कि मैं अभी गया तो कल दिन के उजाले में आ नहीं पाऊँगा और घरवाले तो शादी, जनानी चौथी, मर्दानी चौथी सब निपटा कर कहीं रात तक पहुंचेंगे। उनके पहुँचने से पहले अँधेरा होते ही निकल लेना।
यानि मैं शनिवार रात का उसके घर घुस रविवार रात उनके घर से निकला, वहीं सोया, खाया पिया, वहीं हगा, मूता।
सुबह वह दादा दादी का नाश्ता बनाने नीचे चली गई और अपने लिए इतना ऊपर ले आई कि मेरा भी हो गया।
ऐसे ही उसने दोपहर के खाने और शाम के नाश्ते के वक़्त भी किया। साथ ही पूरे कमरे की सफाई करके उसे रूम फ्रेशनर से महका दिया और हर अवांछित चीज़ पैक करके रख दी कि जाते समय मैं लेता जाऊं।
इस बीच हमने कई बार सेक्स किया जिसे अगर हम डिस्चार्ज के हिसाब से देखें तो आठ बार वह स्खलित हुई थी और पांच बार मैं। पांच बार में मेरी हालत ऐसी हो गई थी कि कदम लड़खड़ाने लगे थे।
अब कोई जवान लौंडा तो था नहीं।
सबसे आखिरी बार में उसने मेरी वह इच्छा पूरी की थी जो इससे पहले कभी नहीं पूरी हुई थी और बकौल उसके यह मेरी सेवाओं का इनाम था जो उसने मुझे दिया था।
उसने मुंह से मुझे स्खलित कराया था और इस हालत में जो वीर्य निकला था वह बिना किसी झिझक उसने अपने गले में उतार लिया था और ऐसा करते वक़्त उसने मुझे जिन निगाहों से देखा था वह मुझे आने वाली पूरी ज़िन्दगी याद रहेंगी।
और रात के आठ बजे मैंने उसका घर छोड़ दिया था, उसने अपनी तड़प अपने गले में घोंट ली थी, बरसती आँखों को मुझसे छुपाने के लिए चेहरा घुमा लिया था और आखिरी वक़्त में इतनी ताक़त भी न जुटा पाई थी कि मेरे अलविदा का जवाब दे पाती।
जिस दिन मैंने यह कहानी लिखनी शुरू की थी उससे अलग हुए तीन दिन हुए थे और आज लिखते लिखते दस दिन हो गए थे।
इस बीच उसका आते जाते कई बार मेरा आमना सामना हुआ था और मैंने एक तड़प, एक कसक उसकी आँखों में देखी थी।
मैं जानता था कि यूँ किसी से अलग होना उसकी उम्र की लड़की के लिए बेहद मुश्किल था।
मेरा क्या था, मेरे लिए यह खेल था।
ऐसा नहीं था कि मुझे तकलीफ नहीं हुई थी लेकिन उसकी तुलना में यह कुछ भी नहीं थी।
मैंने वैसा ही किया था जैसा उसने कहा था, उसका नंबर, कॉल और व्हाट्सप्प पर ब्लॉक कर दिया था।
वह सामने पड़ती तो मैं चेहरा घुमा लेता कि कहीं कुछ बोल न दे और दूर होती तो रास्ता बदल लेता।
यह ठीक था कि मुझे ऐसा करते अच्छा नहीं लगता था मगर उसके लिए यही ठीक था।
इन दस दिनों में मैंने उस दूसरी लड़की से अच्छी खासी दोस्ती कर ली थी जिसका ज़िक्र मैंने कहानी के शुरू में किया था और उसके बारे में काफी कुछ जान लिया था।
जो पहले बंद गठरी थी अब धीरे धीरे खुलने लगी थी
गौसिया से अलग होने की तकलीफ मैंने उसमें दिलचस्पी लेकर ही कम की थी।
पहले आते जाते हाय हैलो होती थी और फिर एक दिन मोहल्ले से निकल कर फैज़ाबाद रोड पर बस पकड़ने के लिए खड़ी थी कि मैं आ टकराया था और उसका नम्बर ले लिया था जिससे थोड़ी बहुत बात फोन पर भी हो जाती थी।
उसने पूछा था मुझसे- क्यों दिलचस्पी है मुझमें?
और मैंने कहा था- क्योंकि तुम मेरे जैसी एक आम लड़की हो, एकदम आर्डिनरी… कोई खास चीज़ नहीं। न शक्ल सूरत, न फिगर और न ही वह उत्साह उमंगों से भरी उम्र। बस यही कारण है मेरे तुममें दिलचस्पी लेने का!
दो टूक सच किसे नहीं चुभता… उसके चेहरे पर भी नागवारी के भाव आकर चले गए थे।
पर वो कम उम्र की कोई नवयौवना नहीं थी बल्कि तीस पर की एक युवती थी जिसे अब तक सच का सामना करने की आदत पड़ चुकी होनी चाहिए थी।
उसने दो दिन बात नहीं की और तीसरे दिन शाम की छुट्टी के बाद मेरे साथ बजाय घर के कहीं चलने की इच्छा प्रकट की।
मैं पूरी शराफत से उसे उसी ओर के एक पार्क में ले आया जिधर उसका मोहल्ला था।
यहाँ उसके मोहल्ले का मैं कोई ज़िक्र नहीं करूँगा क्योंकि उसकी जो कहानी है वो उसकी आइडेंटिटी स्पष्ट कर देगी जो मुझे स्वीकार नहीं।
बस यूँ समझिये कि वह सिटी बस से निशातगंज आती जाती थी।
बहरहाल अकेले में पहुंचे तो उसने यही कहा- खुद को समझते क्या हो?
‘वही जो तुम हो… भीड़ में शामिल एक आम सा इंसान, जिसकी कोई खास पहचान नहीं। जो ऐसा हैंडसम नहीं कि उस पर लड़कियां मर मिटें और इतना सक्षम भी नहीं कि फिज़िकली हर लड़की या औरत को संतुष्ट कर सके।’
‘खुद से मेरी तुलना किस आधार पर की… सेहत में अच्छे हो, शक्ल में कोई हीरो जैसे न सही लेकिन बुरे भी नहीं और उम्र कुछ भी हो लगते तो तीस के नीचे ही हो।’
‘तो?’
‘तो मैं क्या हूँ… यह सांवला रंग, यह मोटी सी नाक और मोठे होंठ वाला बुरा सा चेहरा… ये पेट वाली बत्तीस इंच की कमर और ये चार फुट से थोड़ी ज्यादा लंबाई। मैं तुम्हारी तरह आम नहीं एक बुरी सी लड़की हूँ।’
‘तुम्हें लगता होगा पर शायद मेरी नज़र में तुम बुरी सी नहीं, आम सी ही लड़की हो।’
‘और कुंवारा आदमी चालीस का हो तो तीस का लगता है लेकिन मेरे जैसी कोई लड़की कुंवारी हो तो तीस की होने पर भी पैंतीस की लगती है।’
‘शायद ऐसा हो, पर कहना क्या चाहती हो?’
‘यही कि एक बुरी सी लड़की में जो शक्ल या जिस्म से अच्छी नहीं, जिसकी खेलने की उम्र निकल चुकी हो उसमें दिलचस्पी क्यों? इश्क़ तो होगा नहीं।’
‘नहीं… मैं उम्र के उस दौर को बहुत पीछे छोड़ चुका हूँ जहाँ इश्क़ हुआ करता है।’
‘फिर… सेक्स करना चाहते हो?’
‘नहीं… वैसे मैं ऑप्शन लेस बंदा नहीं कि इस वजह से तुमसे दोस्ती करूँ।’
‘फिर- आखिर मैं समझ नहीं पा रही कि दुनिया भर की खूबसूरत लड़कियां पड़ी हैं लखनऊ में लेकिन तुम्हें मुझमें ऐसा क्या नज़र आया जो मुझ पर अपना वक़्त खपा रहे हो। चलो मुझसे पूछो कि मेरी दिलचस्पी क्या है जो मैंने तुम्हें लिफ्ट दी।’
‘चलो बताओ- क्यों दी लिफ्ट?’
‘क्योंकि मैं कुंठित हूँ… फ्रस्टेट हूँ… मैं शक्ल सूरत से अच्छी नहीं कि कोई मुझसे प्यार करे और न रूपये पैसे से मज़बूत कि कोई मुझे ब्याहे और न कम उम्र की कोई जवान और सेक्सी लड़की कि मुझसे सेक्स करने के इच्छुक लोगों की लाइन लगी हो।’
मैं सरापा सवाल बना उसे देखता रहा।
‘पर मेरे शरीर में भी इच्छाएं पैदा होती हैं। मुझे भी रातों को नींद नहीं आती और बिस्तर पर सुलगते हुए रात गुज़रती है। मेरे पास क्या विकल्प है?’
‘तुम्हारे हिसाब से वो विकल्प तुम्हें मुझमें दिखा?’
कुछ बोलने के बजाय वह ख़ामोशी से मुझे देखती रही।
‘नहीं… मैं ज़िन्दगी का दर्शन तुमसे कहीं बेहतर समझता हूँ। तुम एक ऐसी ज़िंदगी गुज़ार रही हो जो तुम्हें मंज़ूर नहीं लेकिन विकल्पहीनता की वजह से इसे अपनाये हुए हो।
तुम्हारी उम्र हो गई और तुम एक स्वीकार्य सेक्स पार्टनर न पा सकी, यह तुम्हारे अंदर कुंठा की मुख्य वजह है। ज़ाहिर है कि अगर कोई समाज को स्वीकार्य सेक्स पार्टनर तुम्हारे पास होता तो तुम ऐसी न होती। पर इसके लिए तुमने मुझे लिफ्ट नहीं दी।’
‘फिर?’
‘क्योंकि जो ज़िन्दगी तुम गुज़र रही हो वो तुम्हारी पसंद नहीं मज़बूरी है। तुम्हारे अंदर भी सारी तकलीफें सारी परेशानियां किसी से कह देने की ख्वाहिश होती है पर शायद कोई है नहीं और मैं शायद तुम्हें इस रूप में फिट दिखा होऊँ।’
‘ओके, चलो मैं स्वीकार करती हूँ कि वाकई ऐसा है और मैं अपना पहला सच स्वीकार करती हूँ कि मैं एक रंडी हूँ।’ कहते वक़्त उसकी आँखें मुझ पर ऐसे टिकी थीं जैसे मेरे रिएक्शन को गौर से पढ़ना चाहती हो।
मैं हंस पड़ा- ऐसा होता तो तुम इतने गौर से मेरे एक्सप्रेशन को पढ़ने की कोशिश न करती कि तुम्हारी बात ने मुझ पर क्या असर डाला बल्कि कहते वक़्त आवाज़ में अपराधबोध की भावना होती।
इस बार वह मुस्कराई और मैंने साफ़ महसूस किया कि उसकी आँखें भीग गई थीं।
मैं बस चुपचाप उसे देखता रहा, उन निगाहों से जैसे कह रहा होऊँ कि तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो।
इस बार वह बड़ी देर बाद बोली- शायद बहुत तजुर्बेकार हो, मैंने जो खुद में छुपाया हुआ है उसे मेरी आँखों और हावभाव से पढ़ लेते हो। मेरे साथ सोना चाहते हो?’
‘शायद ही किसी पल मुझमें ये ख्वाहिश पैदा हुई हो। मेरी नज़र में सेक्स लिंग और योनि के घर्षण से इतर भी कोई चीज़ है। मैं वह मज़ा चूमकर, छूकर, सहलाते हुए और यहाँ तक बात करते हुए भी महसूस कर सकता हूँ।
तुम मेरी इच्छा की फ़िक्र मत करो… मैं तुम्हारे अंदर की उस लड़की को बाहर निकालना चाहता हूँ जो अंदर ही अंदर घुट रही है।
शायद इससे मुझे कुछ न हासिल हो मगर तुम अपने को बेहद हल्का महसूस करोगी।’
‘तुम्हें लगता है कि मैं तुम पर इस हद तक भरोसा कर पाऊँगी?’
‘कोशिश करो… अच्छा चलो अपने बचपन के बारे में कुछ बताओ।’
वह फिर काफी देर तक मुझे गौर से देखती समझने की कोशिश करती रही लेकिन अंततः उसे बोलना पड़ा।
अपने बचपन से जुडी कई बातें उसने बताईं और मैं बड़ी तवज्जो से उन्हें सुनता रहा। किसी मोड़ पर उसे ये अहसास नहीं होने दिया कि मेरी दिलचस्पी उसकी बातों में नहीं।
ऐसे ही एक घंटा गुज़र गया और वह वहाँ से चली गई।
फिर फोन पे ऐसे ही मैं उसे छेड़ कर कुरेदता रहा और वह कुछ न कुछ बताती रही… बीच में तीन बार शाम में छुट्टी के बाद वह मेरे साथ घंटे भर के लिए घूमी भी और मैं उसे बोलने पर मजबूर करता रहा।
मैं अपनी बातें बहुत कम ही कहता था मगर उसकी हर बात बड़ी गौर से सुनता था और रियेक्ट भी करता रहता था जिससे उसे लगे कि मैं उसकी बातों में वाकई इंटरेस्टेड हूँ।
और फिर उससे दोस्ती के एक महीने बाद उसने मेरे लिये छुट्टी की।
वह अपने अंदर का सारा उद्गार निकाल फेंकना चाहती थी इसलिए किसी ऐसी जगह जाना चाहती थी जहाँ हम सुबह से शाम तक रह सकें।
मैं उसे टीले वाली मस्जिद के साथ वाली रोड से होता कुड़िया घाट ले आया जहाँ हम जैसे एकाकी पसंद लोगों के लिए काफी स्पेस उपलब्ध था।
हम दिन भर यहीं रहे… दोपहर में भूख लगी तो वहाँ से निकल के खदरे पहुंचे और थोड़ा खा पीकर वापस वहीं पहुंच गए और शाम तक वहीं रहे।
इस बीच उसने अपनी हज़ारों बातें बताई।
कहीं कुछ छूटा नहीं… एक-एक छोटी बड़ी बात, बचपन से लेकर जवानी और जवानी से लेकर अब तक!
कभी किसी बात को बताते बच्चों की तरह खुश हो जाती, तो कभी आंखें भीग जातीं, कहीं एकदम गुस्से में आ कर मुट्ठियां भींचने लगती तो कहीं एकदम उत्तेजित हो जाती।
मैं उसकी हर बात उतनी ही गौर से सुनता रहा जितना वो अपेक्षा कर रही थी।
और अंत में उसके अंदर का सारा लावा निकल चुका तो मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उसकी आइडेंडिटी हाइड कर दी जाए तो उसकी कहानी ऐसी थी जो इस मंच पर आप लोगों से साझा की जा सकती है।
मैंने वही कोशिश की है… कहानी में रोमांच पैदा करने के लिए मैंने रचनात्मक छूट अवश्य ली है लेकिन कहानी के सार-सत्व से कोई छेड़छाड़ नहीं की।
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