Thriller विक्षिप्त हत्यारा
उस क्षण सुनील की दृष्टि शीशे की खिड़की से बाहर लॉन की ओर भटक गई । खिड़की के सामने से एक पहियों वाली कुर्सी गुजर रही थी । कुर्सी को पीछे से एक सफेद वर्दीधारी अर्दली धकेल रहा था । कुर्सी पर एक औरत बैठी थी जिसका शरीर कमर तक शाल से ढका हुआ था । वह खिड़की से विपरीत दिशा में देख रही थी इसीलिए सुनील को उसका चेहरा नहीं दिखाई दिया ।
"तुम्हें मेरी आफर मंजूर है ?" - सेठ ने आशापूर्ण स्वर से पूछा ।
सुनील ने जानबूझ कर तत्काल उत्तर न दिया । उसने अपना चाय का कप उठाया और उसमें बची सारी चाय एक ही सांस में हलक में उड़ेल ली । उसने सिगरेट का आखिरी कश लगा कर उसे ऐशट्रे में फेंक दिया और उठ खड़ा हुआ ।
"सेठजी" - वह गम्भीर स्वर में बोला - "मैं सोच रहा था..."
"कि तुम्हें मेरी आफर स्वीकार करनी चाहिये या नहीं ?"
"नहीं, मैं सोच रहा था कि आप ने मुझे घर बुलाकर यूं आनन-फानन इतनी तगड़ी आफर क्यों दी ?"
"क्या मतलब ?"
"मतलब यह कि क्या मैं आपको वाकई इतना भला और ईमानदार आदमी लगा हूं कि आपने मुझे अपने उस अखबार का सम्पादक बनाने का फैसला कर लिया जो अभी छः महीने बाद निकलेगा । सेठजी आपकी इतनी बड़ी आफर ही आप की नीयत की चुगली कर रही है ।"
"मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम क्या कह रहे हो ?"
"लोगों ने आपको मेरे बारे में बहुत कुछ बताया है ।" - सुनील सेठ की परवाह किये बिना बोलता रहा - "अगर आपने मेरे बारे में थोड़ी और तफ्तीश करवाई होती तो आपको इस तथ्य की भी जानकारी हो जाती कि पैसा संसार की आखिरी चीज है जो मुझे अपनी मर्जी के खिलाफ कोई काम करने पर मजबूर कर सकती है । इसलिये अगर आप यह समझते हैं कि आप मुझे एक मोटी रकम का लालच देकर राजनगर छोड़ देने पर मजबूर कर सकते हैं तो आप की गलती है ।"
"क्या बक रहे हो ?"
"मैं यह बक रहा हूं कि आप मुझे बढिया नौकरी की रिश्वत देकर राजनगर से दफा नहीं कर सकते ।"
सेठ तनिक विचलित दिखाई देने लगा ।
"सेठ जी" - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - "आप बहुत बड़े आदमी हैं । अभी आप मेरा मुंह बन्द करने के लिये मुझे छः महीने के लिये अहमदाबाद भेजने के इन्तजाम कर रहे हैं । अगर मैं आपकी यह आफर अस्वीकार कर दूं तो आप किसी पेशेवर बदमाश को थोड़े से रुपये देकर मेरी हत्या भी करवा सकते हैं । इसीलिये सेठजी मुझे अहमदाबाद भेज देने से किसी को कोई लाभ नहीं होने वाला है और खास तौर से..."
"तुम किसकी बात कर रहे हो ?" - सेठ कम्पित स्वर से बोला ।
"मैं राम ललवानी की बात कर रहा हूं ।"
"राम ललवानी ! कौन राम ललवानी ?"
"वही राम ललवानी जिससे सन् चौंसठ के आरम्भ में आपकी इकलौती बेटी सुनीता ने बम्बई में विवाह किया था ।" - सुनील ने अन्धेरे में तीर छोड़ा ।
सेठ के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी ।
"मैं उसी राम ललवानी का जिक्र कर रहा हूं, जो आप का दामाद है, जिसके लिये आपने लाखों रुपया हरजाना भर कर लिबर्टी बिल्डिंग की पांचवी मंजिल और बेसमैंट खाली करवाई थी, जिसके छोटे भाई मनोहर ललवानी ने बम्बई में बड़ी नृशंसता से एक कसाई की तरह तीन लड़कियों को काट डाला था और जो पुलिस रिकार्ड के अनुसार बाइस मार्च सन् पैंसठ को बम्बई में पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में मारा गया था । लेकिन अभी सिर्फ मैं जानता हूं कि आप के दामाद का छोटा भाई मनोहर ललवानी मरा नहीं है । वह जिन्दा है और मुकुल के नाम से अपने भाई के मैड हाउस नाम के डिस्कोथेक में गाता-बजाता है । वह समझता है कि अगर मैं राजनगर से गायब हो जाऊं तो पुलिस को कभी मालूम नहीं हो पायेगा कि उसका भाई जिन्दा है और उसने फिर हत्यायें करनी आरम्भ कर दी हैं ।"
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