Thriller विक्षिप्त हत्यारा
"आप जरा एक मिनट होल्ड कीजियेगा ।" - सैक्रेट्री बोला ।
"सारी । मुझे पहले ही बहुत देर हो गई है । विश्वास जानिये मेरा ठीक दस बजे पुलिस हैडक्वार्टर पहुंच जाना वाकई बहुत जरूरी है ।"
"आप केवल एक मिनट होल्ड कर लीजिए । अगर इससे ज्यादा देर लगे तो सम्बन्ध विच्छेद कर दीजियेगा ।"
"ओके ।" - सुनील बोला और घड़ी देखने लगा ।
पचास सैकेंड बाद उसे फोन पर एक नई, गम्भीर और अधिकारपूर्ण आवाज सुनाई दी - "मिस्टर सुनील ?"
"यस ।"
"मैं मंगत राम बोल रहा हूं । आप बेहिचक यहां आ जाइये । पुलिस हैडक्वार्टर में लोग खुशी से आपकी प्रतीक्षा कर लेंगे । मेरा कानूनी सलाहकार पुलिस हैडक्वार्टर में उस इन्सपेक्टर से बात कर लेगा जो आपकी प्रतीक्षा कर रहा है ।"
"लेकिन साहब, यह कोई छोटा-मोटा मामला नहीं है । मेरी गरदन दो-दो हत्याओं के मामले में फंसी हुई है ।"
"मिस्टर सुनील" - सेठ का तनिक उखड़ा किन्तु पूर्ववत् प्रभावशाली स्वर सुनाई दिया - "मैं बूढा आदमी हूं । मुझ में अधिक बोलने की हिम्मत नहीं है । आप मझे हां या ना में इतना जवाब दीजिये का आप यहां आ रहे हैं या नहीं !"
"मैं आ रहा हूं ।" - सुनील फौरन बोला ।
"थैंक्यू, मिस्टर सुनील ।"
सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
सुनील ने रिसीवर रखा और फ्लैट से बाहर निकल गया । नीचे आकर उसने अपनी मोटरसाइकल सम्भाल ली और नेपयन रोड की ओर उड़ चला ।
नेपयन रोड पर सेठ मंगत राम की कोठी बहुत सुन्दर थी, बहुत विशाल थी । कोठी की चारदीवारी के विशाल फाटक के सामने एक गौरखा चौकीदार खड़ा था । सुनील ने गोरखे को अपना नाम बताया । गोरखे ने तत्काल आकर गेट खोल दिया । शायद उसको सुनील के आगमन की सूचना पहले ही दी जा चुकी थी ।
सुनील ने मोटरसाइकल कोठी के अन्दर मोड़ दी । लगभग एक फर्लांग लम्बे ड्राइव-वे में से होता हुआ वह कोठी के सामने पहुंचा ।
कोठी की सीढियों पर एक सूटबूटधारी व्यक्ति यूं खड़ा था जैसे वह सुनील की ही प्रतीक्षा कर रहा हो ।
सुनील मोटरसाइकल से उतरा ।
"मिस्टर सुनील ?" - वह व्यक्ति बोला ।
"यस ।" - सुनील बोला ।
"मैं सेठजी का सैक्रेट्री हूं । मैंने ही आप से फोन पर बात की थी ।"
सुनील ने उसकी ओर दृष्टिपात किया ।
"मेरे साथ आइये । सेठजी आप ही की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।"
सुनील उसके पीछे हो लिया ।
सैक्रेट्री उसे एक विशाल कमरे में छोड़ गया । कमरे की तीन दीवारों के साथ लगे रैकों में चमड़े की जिल्दों वाली किताबें लगी हुई थीं, चौथी दीवार की पूरी लम्बाई में एक शीशे की विशाल खिड़की थी जिसमें से बाहर का लॉन दिखाई दे रहा था ।
कमरे में एक विशाल मेज थी जिसके पीछे लगभग पचपन वर्ष का दुबला-पतला वृद्ध बैठा हुआ था । उसके हाथ में एक लम्बा सिगार था ।
सुनील ने उसे नमस्ते की ।
"तशरीफ रखिये ।" - वृद्ध बोला ।
सुनील एक कुर्सी पर बैठ गया ।
"मेरा नाम मंगत राम है ।"
सुनील केवल मुस्कुराया ।
वृद्ध ने अपनी घड़ी पर दृष्टिपात किया - "आप एकदम ठीक समय पर आये हैं । मुझे समय के पाबन्द लोग बहुत पसन्द हैं ।"
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