RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
काकी से गठरी ली और एक ओर चल दिया। वह गाँव को इस दृष्टि से देखने लगा कि रात्रि व्यतीत करने के लिए कोई स्थान ढूँढ सके। चाहे पर्वत की कोई गुफा ही क्यों न हो। वह आज बहुत प्रसन्न था। इसलिए नहीं कि उसे नौकरी मिलने की आशा हो गई थी, बल्कि इन पर्वतों में रहकर शांति भी पा सकेगा और अपनी आयु के शेष दिन प्रकृति की गोद में हँसते-खेलते बिता देगा। वह कलकत्ता के जीवन से ऊब चुका था। अब वहाँ रखा भी क्या था! कौन-सा पहलू था, जो उसकी दृष्टि से बच गया हो। सब बनावट-ही-बनावट-झूठ व मक्कार की मंडी!
वह इन्हीं विचारों में डूबा ‘वादी’ से बाहर पहुँच गया। उसने देखा-थोड़ी दूर पर एक छोटी-सी नदी पहाड़ियों की गोद में बलखाती बह रही है। उसके मुख पर प्रसन्नता-सी छा गई। वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा नदी के किनारे जा पहुँचा और कपड़े उतारकर जल में कूद पड़ा।
स्नान के पश्चात् उसने वस्त्र बदल डाले और मैले वस्त्रों को गठरी में बाँध, नदी के किनारे-किनारे हो लिया।
सूर्य देवता दिन भर के थके विश्राम करने संध्या की मटमैली चादर ओढ़े अंधकार की गोद में मुँह छिपाते जा रहे थे।
राजन की आँखों में नींद भर-भर आती थी। वह इतना थक चुका था कि उसकी दृष्टि चारों ओर विश्राम का स्थान खोज रही थी। दूर उसे कुछ सीढ़ियाँ दिखाई दीं। वह उस ओर शीघ्रता से बढ़ा।
वे सीढ़ियाँ एक मंदिर की थीं-जो पहाड़ियों को काटकर बनाया गया था और बहुत पुराना प्रतीत होता था। वह सीढ़ियों पर पग रखते हुए मंदिर की ओर बढ़ा- परंतु चार-छः सीढ़ियाँ बढ़ते ही अपना साहस खो बैठा। गठरी फेंक वहीं सीढ़ियों पर लेट गया, थकावट पहले ही थी- लेटते ही सपनों की दुनिया में खो गया।
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