RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
राजन यह उत्तर सुनते ही मुँह फेरकर हँसने लगा और नाक सिकोड़ता हुआ नीचे को चल दिया।
माधो के कहने के अनुसार राजन अपने काम में लग गया। उसके लिए यह थैलियों का तार के द्वारा नीचे जाना-मानो एक तमाशा था-जब थैली नीचे जाती तो राजन यों महसूस करता-जैसे कुण्डे के साथ लटका हुआ हृदय घाटियों को पार करता जा रहा हो, वह यह सब कुछ देख मन-ही-मन मुस्करा उठा-परंतु काम करते-करते जब कभी उसके सम्मुख रात्रि वाली वह सौंदर्य प्रतिमा आ जाती तो वह गंभीर हो जाता-फिर यह सोचकर कि उसने कोई स्वप्न देखा है- भला इन अंधेरी घाटियों में ऐसी सुंदरता का क्या काम? सोचते-सोचते वह अपने काम में लग जाता।
काम करते-करते चार बज गए-छुट्टी की घंटी बजी-मजदूरों ने काम छोड़ दिया और अपने-अपने वस्त्र उठा दफ्तर की ओर बढ़े।
‘तो क्या छुट्टी हो गई?’ राजन ने एक से पूछा।
‘जी बाबूजी-परंतु आपकी नहीं।’
‘वह क्यों?’
‘अभी तो आपको नीचे जाकर माधो दादा को हिसाब बतलाना है।’
और राजन शीघ्रता से रजिस्टर उठा घाटियों में उतरती हुई पगडंडी पर हो लिया-जब वह स्टेशन पहुँचा तो माधो पहले से ही उसकी राह देख रहा था-राजन को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि पहले ही दिन हिसाब माधो से मिल गया-हिसाब देखने के बाद माधो बोला-
‘राजन, आशा है कि तुम इस कार्य को शीघ्र ही समझ लोगे।’
‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है दादा!’ राजन ने सामने रखे चाय के प्याले पर दृष्टि फेंकते हुए उत्तर दिया और फिर बोला-‘दादा इसकी क्या आवश्यकता थी? तुमने तो बेकार कष्ट उठाया।’ कहते हुए चाय का प्याला उठाकर फटाफट पी गया।
माधो को पहले तो बड़ा क्रोध आया, पर बनावटी मुस्कान होठों पर लाते हुए बोला-‘कष्ट काहे का-आखिर दिन भर के काम के पश्चात् एक प्याला चाय ही तो है।’
‘दादा! अब तो कल प्रातः तक की छुट्टी?’ राजन ने खाली प्याला वापस रखते हुए पूछा।
‘क्यों नहीं-हाँ, देखो यह सरकारी वर्दी रखी है और यह रहा तुम्हारा गेट पास-इसका हर समय तुम्हारे पास होना आवश्यक है।’
‘यह तो अच्छा किया-वरना सोच रहा था कि प्रतिदिन कोयले से रंगे काले मेरे वस्त्रों को धोएगा कौन?’
एक हाथ से ‘गेट पास’ और दूसरे से वस्त्र उठाते हुए वह दफ्तर की ओर चल पड़ा-कंपनी के गेट से बाहर निकलते ही राजन सीधा कुंदन के घर पहुँचा-कुंदन उसे देखते ही बोला-
‘क्यों राजन! आते ही झूठ बोलना आरंभ कर दिया?’
‘झूठ-कैसा झूठ?’
‘अच्छा बताओ रात कहाँ सोए थे?’
‘रात? स्वर्ग की सीढ़ियों पर?’
‘स्वर्ग की सीढ़ियों पर!’
‘हाँ भाई! वह पहाड़ी वाले मंदिर की सीढ़ियों पर।’
‘तो यों कहो न।’
यह सुनते ही कुंदन जोर-जोर से हँसने लगा और राजन के और समीप होते हुए बोला-‘स्वर्ग की सीढ़ियों से ही लौट आए या भीतर जाकर देवताओं के दर्शन भी किए।’
‘देवताओं के तो नहीं-परंतु एक सुंदर फूल के अवश्य ही।’
‘किसी पुजारी के हाथ से सीढ़ियों पर गिर पड़ा होगा।’
‘यों ही समझ लो-अच्छा काकी कहाँ हैं?’
‘तुम्हारे लिए खाना बना रही हैं।’
‘परंतु...।’
‘राजन! अब यों न चलेगा, जब तक तुम्हारा ठीक प्रबंध नहीं होता-तुम्हें भोजन यहीं करना होगा और रहना भी यहीं।’
‘नहीं कुंदन! ऐसा नहीं हो सकता।’
‘तो क्या तुम मुझे पराया समझते हो?’
‘पराया नहीं-बल्कि तुम्हारे और समीप आने के लिए मैं यह बोझ तुम पर डालकर तुमसे दूर नहीं होना चाहता-मैं चाहता हूँ कि अपने मित्र से दिल खोलकर कह भी सकूँ और सुन भी सकूँ।’
‘अच्छा तुम्हारी इच्छा-परंतु आज तो...!’
‘हाँ-हाँ क्यों नहीं, वैसे तो अपना घर समझ जब चाहूँ आ टपकूँ।’
‘सिर-आँखों पर... काकी भोजन शीघ्र लाओ।’ कुंदन ने आवाज दी और थोड़े ही समय में काकी भोजन ले आई-दोनों ने भरपेट भोजन किया और शुद्ध वायु सेवन के लिए बाहर खाट पर आ बैठे-इतने में मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं-राजन फिर से मौन हो गया-मानों घंटियों के शब्द ने उस पर जादू कर दिया हो-उसके मुख की आकृति बदली देख कुंदन बोला-‘क्यों राजन, क्या हुआ?’
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