RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘यह शब्द सुन रहे हो कुंदन!’
‘मंदिर में पूजा हो रही है।’
‘मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है-जैसे यह शब्द मेरे कानों में बार-बार आकर कह रहे हों-इतने संसार में यदि एक-आध मनुष्य समय से पहले चला भी जाए तो हानि क्या है?’
‘अजीब बात है।’
‘तुम नहीं समझोगे कुंदन! अच्छा तो मैं चला।’
‘कहाँ?’
‘घूमने-मेरे वस्त्र यहीं रखे हैं।’
‘और लौटेंगे कब तक?’
‘यह तो नहीं जानता। मौजी मनुष्य हूँ। न जाने कहाँ खो जाऊँ?’
कहते-कहते राजन मंदिर की ओर चल पड़ा और उन्हीं सीढ़ियों पर बैठ ‘सुंदरता’ की राह देखने लगा। जरा सी आहट होती तो उसकी दृष्टि चारों ओर दौड़ जाती थी।
और वह एक थी कि जिसका कहीं चिह्न नहीं था, बैठे-बैठे रात्रि के नौ बज गए। मंदिर की घंटियों के शब्द धीरे-धीरे रात्रि की नीरसता में विलीन हो गए। उसके साथ ही थके हुए राजन की आँखें भी झपक गईं।
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दूसरे दिन जब राजन काम पर गया तो सारा दिन यह सोचकर आश्चर्य में खोया रहा कि वह पुजारिन एक स्वप्न थी या सत्य।
आखिर वह कौन है? शायद उस रात्रि की घटना से उसने सायंकाल की पूजा पर आना छोड़ दिया हो। तरह-तरह के विचार उसके मस्तिष्क में घूमने लगे। वह सोच रहा था, कब छुट्टी की घंटी बजे और वह उन्हीं सीढ़ियों पर जा बैठे। उसे पूरा विश्वास था कि वह यदि कोई वास्तविकता है तो अवश्य ही पूजा के लिए आएगी।
अचानक ही किसी शब्द ने उसे चौंका दिया, ‘राजन, क्या हो रहा है?’
यह कुंदन का कण्ठ स्वर था।
‘कोयलें की दलाली में मुँह काला।’
‘बस एक ही दिन में घबरा गए।’
‘नहीं कुंदन घबराहट कैसी? परंतु तुम आज...।’
‘जरा सिर में पीड़ा थी। दफ्तर से छुट्टी ले आया।’
‘परंतु तुमने अभी तक यह नहीं बतलाया कि क्या काम करते हो?’
‘काम लो सुनो। यह सामने जो ऊँची चट्टान एक गुफा-सी बना रही है।’
‘हाँ।’
‘बस उन्हीं के बाहर सारे दिन बैठा रहता हूँ।’
‘क्या पहरा देने के लिए?’
‘तुम्हारा अनुमान गलत नहीं।’
‘क्या भीतर कोई सोने या हीरों का खजाना है?’
‘सोने, हीरों का नहीं बल्कि विषैली गैसों का, जिन्हें अग्नि से बचाने के लिए बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। दियासलाई, सिगरेट इत्यादि किसी भी वस्तु को भीतर नहीं ले जाने दिया जाता। यदि चाहूँ तो मैनेजर तक की तलाशी ले सकता हूँ।’
‘फिर तो तुम्हारी पदवी मैनेजर से बड़ी है।’
‘पदवी तो बड़ी है भैया, परंतु आयु छोटी।’
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