RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
रास्ते में राजन बोला-
‘पार्वती! जानती हो आज कंपनी से मैंने पहला वेतन पाया है।’
‘मुँह अब खुला।’
‘अवसर ही कब मिला, खेल-कूद की बात जो आरंभ हो गई थी।’
‘तो क्या वह इससे अधिक आवश्यक थी। वहाँ कह दिया होता तो मंदिर में तुम्हारे नाम का प्रसाद ही...।’
‘वह कार्य तो तुम्हारे बाबा कर चुके।’
‘आखिर बाबा की ही मानी, मैं होती तो कहते मैं इन बातों में विश्वास नहीं रखता।’
बातों-ही-बातों में दोनों घर पहुँच गए। बाबा पहले ही प्रतीक्षा में थे। देखते ही बोले-
‘कब से आरती के लिए राह देख रहा हूँ।’
‘बाबा! दीनू की चाची मिल गई थी और बातों में देर हो गई...।’
‘और राजन तुम खाना खा आए?’
‘जी! अभी सीधा होटल से आ रहा हूँ।’
बाबा और पार्वती ने आरती आरंभ की, राजन को भी विवश हो उनका साथ देना पड़ा। आरती के पश्चात् जब पार्वती बाबा के साथ रसोईघर की ओर गई तो राजन होठों पर जीभ फेरते हुए अपने कमरे में आ लेटा। भूख के मारे पेट पीठ से लगा जा रहा था और पेट में चूहे उछल-कूद कर रहे थे। आज बाबा से झूठ बोला कि वह भोजन कर चुका है।
वह यह सोच ही रहा था कि किवाड़ खुले और पार्वती ने अंदर प्रवेश किया-उसके हाथों में गिलास था।
‘यह क्या?’
‘दूध।’
‘किसलिए?’
‘तुम भूखे हो न।’
‘तुम्हें किसने कहा?’
‘तुम्हारी आँखों ने-तुमने बाबा से झूठ कहा था न!’
‘हाँ पार्वती... और तुम भी तो...।’
‘हाँ राजन आज से पहले मैं कभी झूठ नहीं बोली-न जाने...।’
‘कोई बात नहीं, यौवन के उल्लास में अकसर झूठ बोलना ही पड़ता है।’
‘अच्छा, अच्छा दूध पी लो, मैं चली...।’
‘ठहरो तो-देखो, तुम्हारे लिए मैं कुछ लाया हूँ।’
‘चॉकलेट!’ पार्वती ने प्रसन्नता से हाथ बढ़ाया और कुछ समय तक चुपचाप खड़ी रही, आँखें छलछला आईं।
राजन घबराते हुए बोला, ‘क्यों क्या हुआ?’
‘यूँ ही बाबूजी की याद आ गई-बचपन में वह भी मुझे हर साँझ को कैंटीन से चॉकलेट लाकर दिया करते थे।’
‘ओह...! अच्छा यह आँसू पोंछ डालो और लो...।’
‘परंतु तुमने बेकार पैसे क्यों गँवाए?’
‘एक चवन्नी की तो है।’
‘चवन्नी-चवन्नी से ही तो रुपया बनता है, और हाँ-तुम तो कह रहे थे कि कलकत्ता से एक चीज मँगाई है।’
‘हाँ पार्वती, मिण्टो वायलिन-एक अंग्रेजी साज मुझे बजाने का बहुत शौक है।’
‘और मुझे नृत्य का।’
‘सच! तुम नाच भी सकती हो?’
‘क्यों नहीं, परंतु केवल अपने देवता के सामने।’
‘मनुष्य के लिए नहीं?’
‘नहीं इनमें क्या रखा है?’
‘तो इन बेजान निर्जीव पत्थरों में क्या रखा है?’
‘राजन यह तुम नहीं समझ सकते।’
‘पारो! ओ पार्वती!’ बाबा की आवाज सुनाई दी। वह तुरंत ही भागती हुई कमरे से बाहर चली गई। राजन ने दूध का गिलास उठाया और उसे पीने लगा। पार्वती शायद शक्कर मिलाना भूल गई थी, परंतु राजन के लिए मिठास काफी थी, पार्वती के हाथों ने जो छुआ था।
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