RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
दूसरी सायंकाल ठीक पूजा के समय राजन मंदिर की सीढ़ियों पर पहुँच गया। जब तक छुट्टी के पश्चात् वह पार्वती से मिल नहीं लेता, उसे चैन नहीं आता था। वह उससे प्रेम करने लगा था और उसे विश्वास था कि पार्वती भी उसे हृदय से चाहती है।
राजन जब कभी उसे अपना प्रेम जताना चाहता था तो वह पूजा और देवताओं के किस्से ले बैठती। वह जानता था कि वह जो कुछ अनुभव करती है या तो समझती नहीं अथवा स्वयं मुख से कह नहीं सकती।
उसने निश्चय किया, आज कुछ भी हो वह उसके हृदय को टटोलेगा।
वह इन्हीं विचारों में मग्न प्रेम के मधुर स्वप्न देख रहा था कि पायल की रुन-झुन ने उसे चौंका दिया। पार्वती मुस्कुराती हुई सीढ़ियों से उतर रही थी।
तो आज भी उसने राजन को सीढ़ियों पर पाया।
राजन उसे देखते ही बोला-‘नदी किनारे चलोगी?’
‘क्यों?’
‘घूमने।’
‘ऊँ हूँ-देर हो जाएगी।’
‘आज पहली बार कहा है, सोचा था-मना नहीं करोगी।’
‘अच्छा चलती हूँ-परंतु देर...।’
‘वह मैं जानता हूँ, तुम चलो तो।’
दोनों नदी की ओर चल दिए।
राजन बोला-‘एक बात पूछूँ?’
‘क्या?’
‘यह प्रतिदिन पूजा के फूल अपने देवताओं पर चढ़ाती हो, उससे तुम्हें क्या मिलता है?’
‘बहुत कुछ।’
‘फिर भी?’
‘मन की शांति।’
‘क्या तुम्हें विश्वास है, यह फूल देवता स्वीकार कर लेते हैं?’
‘क्यों नहीं, श्रद्धापूर्वक जो कुछ चढ़ाया जाता है, वह स्वीकार्य ही है।’
‘यह सब कहने की बातें हैं-जानती हो इन फूलों का क्या होता है?’
‘क्या?’
‘पत्थर के देवताओं के चरणों में पड़े-पड़े अपने सौंदर्य को खो देते हैं।’
‘परंतु कुछ पाकर।’
‘क्या?’
‘शांति अथवा अंत।’
‘अंत ही कहो-सौंदर्य का अंत...।’
‘तो!’ पार्वती कहती-कहती रुक गई।
राजन कहे जा रहा था-‘इन फूलों की तरह तुम्हारा यौवन सौंदर्य भी समाप्त हो जाएगा, मन मुरझा जाएगा, फिर तुम कहोगी-मेरा मन शांत हो गया।’
‘तो क्या मुझे मुरझाना होगा।’
‘हाँ पार्वती! अगर तुम यूँ ही पत्थर से दिल लगाती रहीं तो एक दिन तुम्हें भी मुरझाना ही होगा। जीवन अर्पित ही करना है तो किसी मानव को ही दो, जो तुम्हें मुरझाने न दे।’
‘तो क्या मनुष्य कभी देवता जैसा हो सकता है?’
‘क्यों नहीं, पुजारी चाहे तो मनुष्य को भी देवता बना सकता है।’
‘तो देवता और मनुष्य में अंतर ही क्या है?’
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