RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
प्रातःकाल जब वह अपने कमरे से बाहर निकला तो आँगन के उस पार बरामदे में पार्वती खड़ी पालतू चकोर को बाजरा खिला रही थी। राजन को देखते ही उसने मुँह फेर लिया, पर राजन धीरे-धीरे बढ़ता हुआ उसके पास आ पहुँचा। पार्वती बिना कुछ सुने मुँह मोड़कर अंदर चली गई। राजन को इस बात पर बहुत क्रोध आया और वह जल्दी-जल्दी पैर उठाता बाहर चला गया। उसने निश्चय किया कि जैसे भी हो आज उसे अलग रहने का प्रबंध करना ही होगा, आखिर कब तक दूसरों के घर रहेगा। कंपनी पहुँचते ही वह मैनेजर से मिला, उसने विश्वास दिलाया कि उसे शीघ्र ही कोई मकान दिला देगा।
सारा दिन वह बेचैन सा रहा। उसे रह-रहकर पार्वती पर क्रोध आ रहा था। आखिर उसने किया ही क्या था, वह उससे बिगड़ गई।
सायंकाल जब वह घर लौटा तो बाबा घर पर न थे। राजन धीरे-धीरे पग रखते हुए अपने कमरे तक पहुँचा। पार्वती अकेली बैठी थी। वह बेचैन दिखाई देती थी। राजन को देखते ही उसने अपनी आँखें झुका लीं।
राजन दबी आवाज में कहने लगा-‘पार्वती! मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे रुष्ट हो और मेरे कारण दुखी भी हो। आज प्रातःकाल ही मैनेजर से मिला हूँ। पूजा की छुट्टियों के पश्चात् मकान मिल जाएगा। लाचारी है, नहीं तो कब का चला गया होता।’
यह सुनकर भी पार्वती मौन रही। जब राजन ने इस पर भी कोई उत्तर न पाया तो नाक सिकोड़ता हुआ बाहर चला गया और मंदिर की सीढ़ियों पर जा बैठा। आज वह क्रोधाग्नि में जल रहा था।
आज भी प्रतिदिन की तरह मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, देवताओं के पुजारी हाथों में पूजा के पुष्प तथा थालियों में जलते हुए दीप लेकर मंदिर की ओर जा रहे थे, राजन की दृष्टि बार-बार सीढ़ियों पर पड़ती, परंतु पार्वती के पाँव न देख पाता। उसे विश्वास था, वह अवश्य आएगी, क्योंकि राजन उससे रुष्ट है और वह प्रतीक्षा किए जा रहा था।
पार्वती की प्रतीक्षा ही उसकी पूजा थी।
परंतु वह न आई। आज पूजा पर क्यों न आई, यह सोचकर उसके मस्तिष्क में भांति-भांति के विचार आने लगे। कहीं उसे मुझसे घृणा तो नहीं। नहीं... ऐसा नहीं हो सकता। यह सोचते ही वह बरामदे की ओर बढ़ा और वहाँ से सारे मंदिर की ओर नजर घुमाई, परंतु पार्वती को न देख पाया। मंदिर में पहले से भी अधिक सजावट थी। शायद पूजा की तैयारी हो रही थी। कल से उसकी भी दो दिन की छुट्टियाँ थीं और वह अकेला होगा। आज उसे मंदिर के देवता भी उदास खड़े दिखते थे, मानो वह भी अपनी पुजारिन की प्रतीक्षा में हों।
कल की तरह राजन आज भी घर देरी से लौटा। घर में सब सो चुके थे। वह धीरे-धीरे अपने कमरे तक पहुँचा और चुपचाप अंदर चला गया। प्रकाश होते ही उसने देखा कि सामने बिछावन पर फूल फैले हुए थे।
उसके मुख की आकूति प्रसन्नता में विलीन हो गई। वह बिस्तर के पास गया वहीं फूलों में पड़ा एक पत्र पाया, राजन ने झट से उसे उठा लिया और पढ़ने लगा।
‘आशा करती हूँ तुम मुझे यूँ अकेला छोड़कर न जाओगे।
-पार्वती’
राजन ने पत्र प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया और उसी शैय्या पर लेट गया।
प्रातःकाल पूजा की छुट्टी थी। उसने चाहा कि आज देर तक सोएगा, परंतु बेचैन हृदय को चैन कहाँ, तड़के ही उठ बैठा। बाहर अभी काफी अंधेरा था, आकाश पर सितारे चमक रहे थे। राजन ने थोड़ा किवाड़ खोला और बाहर झांकने लगा। आँगन में ठाकुर बाबा खड़े शायद कहीं जाने की तैयारी में थे। आज पूजा के दिन वह मुँह अंधेरे ही नदी नहाने जा रहे थे। रामू भी उनके साथ था।
जब दोनों बाहर चले गए तो राजन शीघ्रता से बाहर आ गया और ड्यौढ़ी के किवाड़ खोल अंदर देखने लगा। दोनों शीघ्रता से नदी की ओर बढ़े जा रहे थे, जब वे काफी दूर निकल गए तो राजन ने ठंडी साँस ली और दबे पाँव पार्वती के कमरे में पहुँचा।
किवाड़ खुले पड़े थे और पार्वती संसार से बेखबर मीठी नींद सो रही थी। राजन चुपके से उसके बिस्तर के समीप जा रुका।
प्रातःकाल की शीतल वायु खिड़की से आ-आकर पार्वती के बालों से खिलवाड़ कर रही थी। आज भी उस दिन की तरह उसकी लटें उसके माथे पर आ रही थीं। राजन से न रहा गया और लट सुलझाने लगा। माथे पर उंगलियों का छूना था कि पार्वती चौंक उठी। राजन को अपने समीप देखकर घबरा-सी गई तथा लपक कर पास रखी ओढ़नी गले में डाल ली।
‘शायद तुम डर गईं?’ राजन ने उसे घबराए हुए देखकर कहा।
‘नहीं तो... परंतु।’
‘बात यह हुई कि आज नींद समय से पहले खुल गई। सोचा बाबा कथा कर रहे होंगे चलकर दो घड़ी उनके पास हो आऊँ, परंतु वे चले गए।’
‘नदी स्नान को गए होंगे। पूजा का त्यौहार है। हाँ तुम्हें आज कथा की क्या सूझी?’
‘समय बदल रहा है, लोग देवताओं को छोड़ इंसानों पर फूल चढ़ाने लगे हैं, तो मैंने सोचा आज मैं भी जरा देवताओं की लीला सुन लूँ।’
पार्वती लजा कर बोली-‘कहीं सुनते-सुनते देवता बन बैठे तो?’
‘तो क्या? फूल चढ़ाने तो प्रतिदिन आया करोगी।’
‘न बाबा, मेरे फूल मुरझाने के लिए नहीं, यह तो उसे भेंट होंगे जो मुरझाने न दे।’
‘कोई ग्रहण करने वाला मिला भी?’
‘ऊँ हूँ।’
‘पार्वती! आज रात न जाने कोई भूले से मेरे बिछावन पर फूल रख गया। पहले तो मैं देखते ही असमंजस में पड़ गया।’
‘सो क्यों?’
‘यूँ लगता था मानो मुझे डाँट रहे हों परंतु जब मैं उनके समीप गया तो जानती हो उन्होंने क्या कहा।’
‘यही कि इतनी देर से क्यों लौटे?’
‘नहीं... पहले तो वह मुस्कराए और फिर बोले-राजन! हमें यूँ अकेला छोड़कर न जाना।’
‘चलो हटो!’ पार्वती ने लजाते हुए उत्तर दिया और उठकर बाहर जाने लगी। राजन रोकते हुए बोला-
‘जानती हो, लिखने वाले को लेखनी न मिली तो कोयले की कालिमा से ही लिख दिया।’
‘अच्छा आपकी दृष्टि वास्तविकता को न पहचान सकी।’
‘तो क्या?’
‘हाँ वह कालिमा न थी, बल्कि किसी के नेत्रों से निकला काजल था।’
राजन ने बात बदलते हुए पूछा-‘नदी स्नान करने चलोगी?’
‘तुम्हारे संग!’ इतना कहकर जोर-जोर से हँसने लगी।
‘इसमें हँसने की क्या बात है? यानि हम दोनों नहीं जा सकते तो जाओ अकेली।’
‘ऊँ हूँ।’
‘अकेली भी नहीं, किसी के साथ भी नहीं, क्या अनोखी पहेली है।’
‘नहीं, नहीं मुझे जाना ही नहीं।’
‘अरे आज तो पूजा है।’
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